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मनु के राजनीतिक विचार

मनु के राजनीतिक विचार के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। जिसमें मनु का परिचय,  मनु का धर्मशास्त्र, मनु के राज्य एवं राजा का विचार, मनु के राज्य का सप्तांग सिद्धांत, मनु की विदेश नीति, मनु की न्याय व्यवस्था तथा मनु के महत्वपूर्ण कथनों का विवरण है। जो TGT Civics, PGT Civics, LT Civics, GIC Political Science, UGC NET Political Science, Political Science Assistant Professor, UPPSC etc. के विगतवर्षों में आयोजित परीक्षाओं के प्रश्नो पर आधारित है।

मनु का परिचय

मनु को वैदिक सभ्यता का समकालीन हिन्दू कानून और राजनीतिक चिन्तन का प्रवर्तक माना जाता है। मनु को मानव जाति के जन्मदाता, पृथ्वी के प्रथम राजा और प्रथम विधिवेत्ता माना जाता है। पुराणों के अनुसार मनु को मानवता का प्रथम शिक्षक माना जाता है जिसने समाज और मनुष्य से संबंधित ज्ञान को महर्षि भृगु के समाने प्रकट किया।

मनु के संबंध में दाराशिकोह का कथन है कि “ब्राह्मणों का मनु वही है जो मानव जाति का पूर्वज माना जाता है और जिसे यहूदी, इसाई व मुसलमान ‘आदम’ कहते हैं।”

मनुस्मृति/धर्मशास्त्र

मनुस्मृति, मनु के द्वारा लिखा गया ग्रंथ है। मनुस्मृति को ‘मनु संहिता’, ‘मानव धर्मशास्त्र’ और ‘मानव शास्त्र’ के नाम से भी जाना जाता है। जिसमें मनु के राजनीतिक विचार मिलते हैं।

मनुस्मृति में मनुष्य के सम्पूर्ण सामाजिक जीवन के सभी पक्षों की व्यवस्था की गई है। यह मूलतः धर्मशास्त्र पर लिखा गया प्रबंध है। जिसमें 12 अध्याय तथा 2694 ( कुछ विद्वान 2685) श्लोक हैं। मनुस्मृति का दार्शनिक आधार केवल आदर्शवादी ही नहीं है वल्कि भौतिकवादी भी है। अतः इन दोनो विचारधाराओं का सहअस्तित्व है।

जर्मन विचारक नीत्से के अनुसार “मनुस्मृति, बाइबिल की अपेक्षा कहीं अधिक अद्वितीय, उत्कृष्ट और बौध्दिक ग्रन्थ है।”

मनुस्मृति का प्रथम अनुवाद 1794 में ‘ऑर्डिनेन्सेज ऑफ मनु’ के नाम से सर विलियम जोन्स ने किया।

मनु के राज्य का सिद्धांत

प्राचीन धर्मशास्त्रों में शासन के सिद्धांत को दण्ड नीति कहा जाता था। मनु का भी माना था कि दण्ड ही प्रजा पर शासन करता है, राजा केवल दण्ड के उपयोग का साधन है। मनु के शब्दों में “जब सब लोग निद्रा मग्न होते हैं तो दण्ड उन्हें जागरुक रखता है।”

मनु ने राज्य की शक्ति व संप्रभुता को ‘दण्ड’ कहा है। दण्ड राज्य की भौतिक और शारीरिक शक्ति का प्रतीक है। जिसकी बाध्यकारी शक्ति के माध्यम से धर्म (जो धारण करने योग्य हो या विधि) के नियमों को समाज में लागू किया जाता है। अतः दण्ड, धर्म की सहायता करता है लेकिन धर्म से उपर नहीं है। क्योकि धर्म राज्य का मूल आधार है, राज्य का अस्तित्व ही धर्म के प्रवर्तन के लिए है।

मनु के द्वारा ‘त्रिवर्ग सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया गया। जिसमें केवल धर्म, अर्थ और काम पर बल दिया जाता है।

कौटिल्य से पूर्व ‘राजधर्म के सिद्धांत’ का प्रतिपादन मनु के द्वारा किया गया।

मनु के राज्य का सप्तांग सिद्धांत

भारत के प्रचीन ग्रंथ मनुस्मृति में राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत का समर्थन किया गया है। मनुस्मृति में राज्य का स्वरूप सावयवी माना है। मनु का राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत दैवीय सिद्धांत पर आधारित है। मनु के अनुसार राज्य समाज की रक्षा एवं कल्याण करता है।

मनु ने राज्य के सप्तांग सिद्धांत के द्वारा राज्य के अंगो की चर्चा की है। जिसमें राज्य के सात अंग निम्न प्रकार है

  1. स्वामी (राजा),
  2. अमात्य (मन्त्री),
  3. राष्ट्र (जनपद),
  4. पुर (दुर्ग),
  5. कोष,
  6. दण्ड (सेना),
  7. सुह्रद (मित्र)

मनु के विराट पुरुष की अवधारणा में राजा के पास आठ देवताओं की शक्ति होती है। इस प्रकार राजा आठ प्रमुख देवताओं के अंशो से निर्मित है। वायु, यम, वरुण, अग्नि, चन्द्र, सूर्य, कुबेर, इन्द्र देवताओं के सर्वोत्तम अंशो के संयोग से राजा की सृष्टि हुई है।

मनुस्मृति में यह कहा है कि “यद्यपि राजा इंसान है फिर भी उसे किसी से नफरत नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मनुष्य के आकार में एक ईश्वर है।”

मनु की विदेशी नीति

मनुस्मृति में परराष्ट्र नीति के संबंध में मण्डल सिद्धांत, षाड्गुण्य नीति व चार उपाय का वर्णन मिलता है। यह सभी सिद्धांत कौटिल्य के सिद्धांत के समान है। (कौटिल्य के राजनीतिक विचार)

मनु के षाडगुण्य नीति में संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय शामिल है।

उपाय

मनु ने विदेश नीति के संचालन के लिए अपनाये जाने वाले तरीकों व साधन को उपाय कहा है। जिनकी संख्या चार है। जो साम, दाम, दण्ड व भेद है।

  1. साम अर्थात् शांति की नीति को अपनाना या शक्तिशाली राज्य के साथ शान्ति समझौते करना।
  2. दाम अर्थात् धन व उपहार के माध्यम से अपने हितों की रक्षा करना।
  3. भेद अर्थात् राजाओं में आपसी  फूट डालना या शत्रु राज्य के पदाधिकारियों में फूट डालना।
  4. दण्ड अर्थात् बल या सैन्य शक्ति व युद्ध का प्रयोग करना। यह अंतिम उपाय है।

कमजोर राज्य को साम और दाम की नीति को अपनाना चाहिये जबकि शक्तिशाली राज्य को भेद और दण्ड की नीति को अपनानान चाहिए।

मनु की न्याय व्यवस्था

मनु के राजनीतिक विचार में न्याय को प्राप्त करने के लिए दण्ड व्यवस्था में तीनों सिद्धांत निरोधात्मक, सुधारात्मक और परिशोधनात्मक का समन्वय है। मनु की न्याय व दण्ड व्यवस्था ‘विभेदीकृत व्यवस्था’ है। क्योंकि समान अपराध के लिए ब्राह्मण को कम दण्ड और शूद्र को ज्यादा दण्ड का अधिकारी माना है।

मनु के महत्वपूर्ण कथन

  • मनु का कथन है कि “जो राजा प्रशासन स्वयं चलाने का प्रयास करता है वह एक मूर्ख राजा है।”
  • मनु का कथन है कि “धर्म का मूल सिद्धांत है दूसरों का कल्याण और छोटे समूह के कल्याण की अपेक्षा बड़े समूह के कल्याण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।”
  • मनु का कथन है कि “व्यक्ति के हित की अपेक्षा समाज का हित अधिक श्रेयस्कर है।”
  • मनु के अनुसार “यदि स्वामी मुक्त भी कर दे तो भी शूद्र दासता से मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि दासत्व उसका स्वाभाविक कर्म है।”
  • मनु के अनुसार स्त्री, पुत्र तथा शूद्र तीनों सदा सम्पत्तिविहीन ही होते है क्योकि इनकी संपत्ति इनके पालन कर्ता या मालिक की होती है।

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