अरबिन्दो घोष के राजनीतिक विचार के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। जिसमें अरबिन्दो घोष का परिचय एवं योगदान, राष्ट्रवाद का विचार, अतिमानववाद से संबंधित विचार, अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का विचार तथा निष्क्रिय प्रतिरोध का विचार और अरबिन्दो घोष पुस्तकों का विवरण है।
अरबिन्दो घोष का परिचय
अरबिंदो जी का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में हुआ था। ये 7 वर्ष कि आयु में इंग्लैण्ड चले गये। वहां 14 वर्ष तक रहे। 1980 में भारतीय सिविल सेवा (I.C.S.) की प्रतियोगी परीक्षा दी। जीवन के आरम्भिक चरण में अरबिन्दो उग्रवाद (गरमपंथी) विचारधारा के प्रवल समर्थक थे। वे इंग्लैण्ड में ‘लंदन मजलिस’ और ‘द लोटस एंड डैगर’ नामक क्रांतिकारी संगठनों के सदस्य बने।
क्रांतिकारी आंदोलन का प्रभाव
अरविन्दो घोष 1893 में इंग्लैण्ड से भारत वापस आये। भारत में गुप्त समाज नामक क्रांतिकारी संगठन से सदस्य बने। इन्होंने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन (1902), मुम्बई अधिवेशन (1904) और बनारस अधिवेशन (1905) में भाग लिया। अरविंदो ने नरम पंथियों की आलोचनाकी तथा स्वदेशी, स्वराज, बहिष्कार और स्वशासन का समर्थन किया। अपने नो कॉम्प्रोमाइज नामक लेख में कांग्रेस की आलोचना करते हुआ कहा कि ‘कांग्रेस का दृष्टिकोण निराशाजनक व कमजोर है।’ इंदु प्रकाश पत्र में प्रकाशित उनके लेख ‘न्यू लैम्पस् फॉर ओल्ड’ (1893) में उन्होंने आम लोगों को संघर्ष के लिए आह्वान किया।
अरबिंदो घोष का ‘वंदे मातरम’ उनके राजनैतिक उद्भव के आध्यात्मिक राष्ट्रवाद के काल को दर्शाता है। वे 1906 में इस पत्र के सह सम्पादक बने थे जबकि संपादक विपिन चन्द्र पाल थे। इस पत्र के द्वारा स्वदेशी और स्वराज की भावना का प्रचार-प्रसार किया। साप्ताहिक पत्रिका, ‘कर्मयोगी’ और ‘धर्म’ को अरबिन्दो ने शुरू किया था। 1914 में इन्होंने ‘आर्य’ नामक मासिक पत्रिका निकाली।
राजनीति से संन्यास और आध्यात्म को अपनाना
1908 के मुजफ्फरपुर बमकांड में अरबिन्दो को एक वर्ष की सजा हुई। उन्हें अलिपुर जेल में रखा गया। जेल के निकलने के बाद 4 अप्रैल 1910 को अरबिन्दो घोष ने राजनीति से पूर्ण संन्यास लेकर आध्यात्मिक मार्ग अपनाया और पांडिचेरी में एक ‘ऑरविले’ नामक आश्रम की स्थापना की। 5 दिसम्बर 1950 को पांडिचेरी में ही उनका देहांत हो गया।
अरबिन्दो ने दयानंद सरस्वती के बारे में अपना यह दृष्टिकोण दिया है कि, ‘यह स्वर्ग के पुत्र का बार्डेक्सटर है, दिवस पुत्र। यह वह छाप है जो दयानंद अपने पीछे छोड़ गये है।’ अरबिंदो की शिष्या ‘मीरा रिचर्ड’ को ‘मदर’ के नाम से जाना जाता है।
अरबिन्दो घोष का राष्ट्रवाद
श्री अरबिन्दो घोष के राजनीतिक विचार में आध्यात्मिक राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद की पाश्चात्य जनधारणा से भिन्न। अरबिंद घोष के अनुसार, राष्ट्रवाद एक धर्म है। जो ईश्वर की देन है जिसका निर्देशन भी ईश्वर ही कर रहे हैं। इन्होंने राष्ट्र को शरीर की तरह माना है। जो एक आंगिक जीवन एवं आस्तिक प्रवृत्ति है, जिसमें मन व शरीर का विकास होता है। इसलिए राष्ट्र, केवल एक निश्चित भू-भाग नहीं बल्कि यह मां हैं।
धार्मिक लालसा और नैतिक दृष्टिकोण के रूप में राष्ट्रवाद। अरबिंदो जी ने राजनीति और धर्म के संबंध को अविभाज्य माना है। अव्ययी के रूप में राष्ट्र तथा अभिनव राष्ट्रवाद भी कहा जाता है।
अतिमानव का विचार
अरबिंदो के चिन्तन में अतिमानव वाद का विचार फ्रेडरिक नीत्शे के विचार से ग्रहण किया गया है। अरबिंदो ने आध्यात्मिक मानववाद का निर्माण किया तथा मानवीय एकता पर बल दिया। अरबिंदो जी के अनुसार मानव मस्तिष्क उच्चतम है, परन्तु यह दैवीय चेतना से निम्न है। ईश्वर ‘सुपर माइंड’ के द्वारा मानव मस्तिष्क में चेतना के प्रवाह करते हैं।
इन्होंने मानव धर्म के निर्माण पर बल दिया, क्योंकि वे लोगो को संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठाना चाहते थे। उनका मानना था कि मानव की आत्मा में एकता विद्यमान होती है। इस प्रकार अरबिंदों जी ने व्यक्तियों के मध्य अलगाव के स्थान पर एकता पर बल दिया गया।
अंतर्राष्ट्रीयतावाद का विचार
अरबिंदो के अनुसार विश्व में एकता उत्पन्न करने के लिए राजनैतिक और प्रशासनिक माध्यम पर्याप्त नहीं हैं तथा वास्तविक एकता, आत्मिक व आध्यात्मिक होती है। उनका मानना था कि आत्मिक और आध्यात्मिक एकता के परिणाम स्वरूप राष्ट्रों और राज्यों में संघर्ष नहीं होगा। इस प्रकार मानवीय एकता के द्वारा विश्व राज्य का निर्माण संभव हो सकेगा।
अरबिन्दो घोष का निष्क्रिय प्रतिरोध का विचार
अरबिंदो घोष अहिंसक आंदोलन के समर्थक थे किन्तु उनका मानना था कि अंग्रेजों के दमन की स्थिति में हिंसा का प्रयोग आवश्यक है। अन्यथा यह कायरतापूर्ण कार्य समझा जायेगा। उनके अनुसार राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हिंसा का मार्ग भी अपना सकता है। इन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निष्क्रिय प्रतिरोध को सर्वोत्तम साधन बताया है। जिसकी निम्न विशेषताएँ है।
- सरकार की सहायता न करना एवं सामाजिक बहिष्कार।
- सरकारी स्कूलों, अदालतों एवं न्यायालयों का बहिष्कार।
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी का प्रचार।
- राष्ट्रीय शिक्षा का प्रचार, जिसका उद्देश्य स्वयं सहायता व राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लोगों को प्रशिक्षित करना।
अरबिंदो जी के शब्दों में ‘यदि सहायता और मौन स्वीकृति क्रमशः सारे राष्ट्र में वापस ले ली जाए तो भारत में अंग्रेज सत्ता का कायम रहना बहुत कठिन हो जाएगा’।
अरबिंदो घोष का निष्क्रिय प्रतिरोध गाँधी जी के विचार, और आक्रामक प्रतिरोध से अलग है। गांधी जी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए केवल अहिंसा को ही एकमात्र साधन मानते है। और आक्रामक प्रतिरोध ऐसे कार्य करता जिनसे सरकार को सीधे हानि पहुँचती है। जबकि निष्क्रिय प्रतिरोध हिंसा को पूर्णरूप से नहीं त्यागता और ऐसे काम का त्याग करता है जिनसे देश का प्रशासन चलने में सहायता मिलती है।
अरबिंदो घोष की पुस्तकें
- लव एण्ड डेथ
- द लाइफ डिवाइन (1919)
- एसेज ऑन गीता (1922)
- सावित्री: ए लिजेंड एण्ड ए सिम्बल (1940)
- द आइडिया ऑफ ह्यूमन यूनिटी (1918)
- द सीक्रेट ऑफ वेदा
- द सिन्थेसिस ऑफ योगा
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