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अरस्तु का जीवन परिचय और सिद्धांत

अरस्तु का सिद्धांत, जीवन परिचय, राजनीतिक विचार, अरस्तु के राज्य का सिद्धांत, अरस्तु के न्याय का सिद्धांत, तथा परिवार, दासता, नागरिकता और क्रांति के विचार एवं अरस्तु के द्वारा लिखी गई सभी पुस्तकों का विस्तृत विवरण दिया गया है। 

अरस्तु का परिचय (384 ई. पू. से 322 ई. पू.)

मैसिडोनियाई राज्य के पास एक छोटा-सा यूनानी उपनिवेश, स्टेजिरा में 384 ई.पू. में अरस्तु का जन्म हुआ। उसके पिता निकोमैकस राजा एमिंटस-द्वितीय के दरबार में चिकित्सक थे। जिस कारण अरस्तु की चिकित्साशास्त्र में रुचि थी। माता-पिता की मृत्यु के उपरांत उसको प्रोक्सेनस ने पाल-पोष कर बड़ा किया।

यद्यपि अरस्तु का जन्म एथेंस में नहीं हुआ किंतु उसने अपने जीवन का अधिकांश समय वहीं व्यतीत किया। क्योंकि अरस्तु, प्राचीन यूनानी राजनीतिक दार्शनिक प्लेटो का शिष्य था। उसने प्लेटो की अकादमी में लगभग 20 वर्ष बिताये थे। उसके बाद उसने अपनी संस्था लाइसियम की स्थापना की, और लगभग 12 वर्षों तक एथेंस में ही रहा। यह माना जाता है, की प्लेटो और अरस्तु के बीच का अंतर दर्शन और विज्ञान के बीच के अंतर के जैसा है। प्लेटो राजनीतिक दर्शन का जनक था तो अरस्तु राजनीति विज्ञान का जनक था। यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि, अरस्तु मैसिडोनिया के राजा हर्मियास का पुत्र सिकंदर महान का गुरु था।

अरस्तु और प्लेटो

यद्यपि अरस्तु प्लेटो का शिष्य था किन्तु वह उसका बहुत बड़ा आलोचक भी था। दोनों की भिन्नता को बताते हुए मैक्सी लिखता है कि “जहाँ प्लेटो ने अपनी कल्पना को उड़ान भरने दी वहीं अरस्तु तथ्यपरक और नीरस है, जहाँ प्लेटो वाक्-पटु है वहीं अरस्तु स्पष्ट वक्ता है, जहाँ प्लेटो तार्किक निष्कर्षों की सामान्य धारणाओं का निर्माण करता है वहां अरस्तु तथ्यों की विविधता का विश्लेषण कर निष्कर्षों पर पहुँचता है जो तर्क संगत हैं किंतु अंतिम नहीं है, जहाँ प्लेटो हमें आदर्श गणराज्य देता है जो उसके द्वारा कल्पनीय सर्वोत्तम राज्य है, वहीं अरस्तु हमारे सामने उसकी भौतिक आवश्यकताेएँ प्रस्तुत करता है जिन्हें परिस्थितियों के अनुरूप बनाकर एक आदर्श राज्य का निर्माण किया जा सकता है।”

अरस्तु की पुस्तकें (बुक्स)

वर्तमान समय में अरस्तु के केवल 30 शोध ग्रंथ मिलते हैं। इन ग्रंथों में अरस्तु ने विभिन्न दार्शनिक समस्याओं पर विचार व्यक्त किए। इन विषयों में जीवविज्ञान और भौतिकी से लेकर नैतिकता तथा सौंदर्यबोध से राजनीति तक सभी शामिल हैं। जिन ग्रंथों का विवरण निम्न है,-

  1. पॉलिटिक्स
  2. कॉन्स्टीट्यूशन्स
  3. ऑन द पॉलिटी ऑफ द एथेंनियनस्
  4. रेटॉरिक (ग्राइलस)
  5. ऑन द सोल (एंडिमस)
  6. द प्रोट्रेप्टिकस (ऑन फिलॉसफी)
  7. ऑन मोनार्की
  8. ऑर्गेनन
  9. डी डाएले
  10. डी एनिमा
  11. फिजिक्स
  12. मेटाफिजिक्स
  13. मेटियोरोलॉजिकल
  14. इयूडिमियन एथिक्स
  15. निकोमेकियन एथिक्स
  16. निकोमैक्स फ्रॉम हर्फिलिस
  17. पॉएटिक्स

यद्यपि अरस्तु ने उपरोक्त सभी शोध प्रबंध लिखे हैं, किन्तु अरस्तु के राजनीतिक सिद्धान्त मुख्य रूप से पॉलिटिक्स में मिलते हैं। और कॉन्स्टीट्यूशन्स में उसने तत्कालीन 158 संविधानों के अध्ययन के आधार पर शासन प्रणालियोंं का विश्लेषण किया गय है

पॉलिटिक्स

बर्कर के द्वारा इस पुस्तक के आठ अध्यायों का उल्लेख किया गया है। जिसका क्रम उसमें व्यक्त अरस्तु के विचारों के आधार पर किया गया है। जिसमे प्रथम तीन अध्याय प्रारंभिक सिद्धान्तो और प्लेटो की आलोचना से संबंधित है। चौथे और पाँचवे अध्याय (जो परंपरा से सातवां और आठवां अध्याय है) में आदर्श या सर्वोत्तम संभव राज्य के निर्माण का विचार है। अंतिम तीन अध्यायों, छठे से आठवें (पारंपरिक रूप में चौथे से छठा) में वास्तविक राज्य के विश्लेषण से संबंधित विवरण है। साथ ही क्रांति के कारण और निवारण से संबंधित विचार भी हैं।

अरस्तु की अध्ययन पद्धति

अरस्तु की कार्य-पद्धति उसके गुरू प्लेटो से अलग थी। उसने वैज्ञानिक अध्ययन पद्धति को तो अपनाया ही था, साथ ही ऐतिहासिक, तुलनात्मक, आगमनात्मक तथा अवलोकनात्मक पद्धतियों का भी प्रयोग किया। उसकी अध्ययन पद्धति को सोद्देश्यात्मक पद्धति भी कहा जाता है। इस पद्धति में संपूर्ण की कल्पना पहले की जाती है। अर्थात् किसी वस्तु का उद्देश्य पूर्व निर्धारित होता है, जैसे व्यक्ति से पहले राज्य की कल्पना।

उसके बारे में कहा जाता है की वह किसी भी चीज़ को तब तक स्वीकार नहीं करता था जब तक कि वह अनुभव के और वैज्ञानिक आधार पर पुष्ट न हो। अर्थात् अनुभववाद उसकी विशेषता थी

अरस्तु का राजनीति विज्ञान को प्रमुख योगदान राजनीति की विषय-वस्तु को पद्धतियों के क्षेत्र में लाना है जिनका वह प्रकृति के अन्य पहलुओं की जाँच करने के लिए पहले से ही प्रयोग कर रहा था।

अरस्तु के अनुसार राजनीति क्या है-

उसके अनुसार मानवीय जीवन के दो महत्वपूर्ण पक्ष होते हैं। पहला आर्थिक और व्यक्तिगत, तथा दूसरा राजनीतिक और सामाजिक जीवन है। इनमें से दूसरा पक्ष ज्याद महत्वपूर्ण है। इसलिए अरस्तु ने कहा है की “व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है।” जसका अभिप्राय है कि व्यक्ति के जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होना है। जिसका मूल उद्देश्य समुदाय का कल्याण है, न कि व्यक्तिगत स्वार्थ और हितों को पूर्ण करना।

अरस्तु ने पॉलिटिक्स में लिखते हुए कहा कि राजनीति विज्ञान में सदगुणी जीवन का अध्ययन किया जाता है। इसलिए वह राजनीति विज्ञान को सर्वोच्च विज्ञान कहा है। ध्यातव्य है कि अरस्तु ने राजनीति विज्ञान और नैतिकता को अलग-अलग करते हुए राजनीति विज्ञान को स्वतंत्र विषय के रूप में स्थापित किया।

अरस्तु के अनुसार नागरिकता

उसके अनुसार, वे व्यक्ति नागरिक है जो शासन कार्य में भाग लेते हैं और अपना योगदान देते है। अर्थात् अरस्तु ने नागरिकता का आशय, सरकार के न्यायिक और प्रशासनिक कार्यों में भागीदारी करना बताया है। जिसका आधार कर्तव्य एवं नैतिकता का विकास है। इसलिए बार्कर का कहना है कि ‘अरस्तु की नागरिकता की कल्पना राज्य में करदाता के रूप में न होकर, शेयरहोल्डर (अंशधारी) के रूप में है।’

अरस्तु के अनुसार कुछ लोगों को नागरिकता का अधिकार नहीं होगा। वे लोग निम्न है-

  1. महिलाएं
  2. शिल्पी
  3. बूढे़ एवं बच्चे
  4. दासों
  5. विदेशी

अरस्तु का सरकार का वर्गीकरण

संविधान पर विचार व्यक्त करते हुए अरस्तु कहता है कि ‘संविधन राज्य का रूप है’ जिसके अंतर्गत विभागों का निर्धारण व बटवारा, सर्वोच्च सत्ता के केन्द्र का निर्धारण तथा राज्य के उद्देश्य का उल्लेख होता है।

यह उल्लेखनीय है की अरस्तु ने शासन व्यवस्थाओं का वर्गीकरण शासन में सम्मिलित लोगों की संख्या तथा उनके उद्देश्यों (जनहित या स्वहित में काम) के आधार पर किया गया है। इन आधारों पर उसने छः प्रकार के शासन प्रणालियों का उल्लेख किया है। जिनके दो प्रकार हैं। प्रथम शासन प्रणाली का शुद्ध रूप और दूसरा शासन प्रणाली का भ्रष्ट रूप।

शासन प्रणाली का शुद्ध रूप

  1. राजतंत्र
  2. कुलीनतंत्र
  3. संवैधानिक शासन तंत्र

शासन प्रणाली का भ्रष्ट रूप

  1. निरंकुश तंत्र
  2. गुटतंत्र (धनिकतंत्र)
  3. लोकतंत्र

यद्यपि ‘पोलिटी’ का अरस्तु ने सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली के रूप में वर्णन किया है। क्योंकि यह दो प्रकार की शासन व्यवस्था का मध्यम मार्ग है। जिसमें लोकतंत्र व गुटतंत्र शासन प्रणालियों का सम्मिलित रूप है। पोलिटी में संख्या एवं विवेक दोनों का समन्वय होता है।

परंतु उसके अनुसार सबसे बेहतर शासन प्रणाली, राजतंत्र है। क्योंंकि इसमें सर्वोच्च सदगुण पाया जाता है।

अरस्तु का राज्य का सिद्धान्त

अरस्तु के अनुसार, राज्य मनुष्यों की मूलभूत आवश्यकताओं कि पूर्ति के लिए अस्तित्व में आया, किन्तु इसके विकासत रूप के कारण अच्छे जीवन जीने और जीवन के अन्य उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के कारण बना हुआ है। राज्य के अस्तित्व से ही व्यक्ति का पूर्ण नैतिक विकास संभव है। इसलिए अरस्तु राज्य को नैतिक, आत्मनिर्भर एवं सर्वश्रेष्ठ संस्था मानता है। यही अरस्तु के राज्य के सिद्धांत की मान्यता है।

अरस्तु के आदर्श राज्य की प्रकृति

राज्य की प्रकृति बताते हुए अरस्तु कहता है कि राज्य स्वाभाविक, प्राकृतिक एवं आंगिक संस्था है। यह कृत्रिम नहीं है बल्कि इसका विकास एक वृक्ष की भांती प्राकृतिक हुआ है, जैसे बीज से पौधा बनता है, पौधे से वृक्ष का विकास होता है। ठीक उसी प्रकार परिवार से गांव का, गांव से राज्य का आविर्भाव होता है। अर्थात् उसके अनुसार परिवार बीज है और राज्य वृक्ष है। वह राज्य को समुदायों का समुदाय मानता है। इसी कारण अरस्तु कहता है कि ‘जो व्यक्ति राज्य में नहीं रहता, वह या तो पशु है या देवता। वह राज्य को मनुष्य का पूर्वगामी मानता है।

अरस्तु का आदर्श राज्य

अरस्तु का आदर्श राज्य उसके समय में उपस्थित राज्यों की कमियों को दूर करने का आदर्श विकल्प था। इसकी विशेषताएँ बताते हुए अरस्तु कहता है इसके अंतर्गत शासन प्रणाली ‘पोलिटी’ होनी चाहिए। राज्य का आकार निश्चित (न ज्यादा, न कम) होना चाहिए। जिसकी जनसंख्या भी निश्चित (न ज्यादा, न कम) होनी चाहिए। जो समुद्र के किनारे अवस्थित होना चाहिए। और जिसमें नागरिकों का चरित्र, बुद्धिमान और साहसी दोनों का मिला-जुला रूप होना चाहिए।

अरस्तु का न्याय सिद्धान्त

अरस्तु के न्याय का सिद्धांत का यह मानना है कि न्याय राज्य का सर्वाधिक महत्व पूर्ण आधार है। क्योंकि न्याय के अभाव में राज्य का संचालन ज्यादा समय तक नहीं किया जा सकता है। उसका मत था कि न्याय राज्य को एक उद्देश्य प्रस्तुत करता है और मनुष्य के लिए एक लक्ष्य। उसने न्याय को केवल सदगुण की ही संज्ञा नहीं दी बल्कि उसे कार्य-रूप में सदगुण कहा है।

न्याय को अरस्तु ने दो भागों में बांटा है-

1. सामान्य न्याय

सामान्य न्याय संपूर्ण अच्छाई है, यह स्वयं मे संपूर्ण न्याय है। क्योंकि यह न केवल स्वयं के लिए वरन अन्य व्यक्तियों (पड़ोसी) के लिए भी उपलब्ध है। अर्थात् इस न्याय से आशय, सामाजिक नैतिकता व अपने कर्त्तव्य के पालन करने से है।

2. विशेष न्याय

विशेष न्याय, संपूर्ण न्याय का ही भाग है जिसको प्राप्त करने वाला व्यक्ति वह होता है, जो नियमों का तो पालन करता है किन्तु समाज में उसे जितना मिलना चाहिए उससे ज्यादा की मांग नहीं करता। यह दो प्रकार का होता है

  1. वितरणात्मक न्याय –
    • राज्य के द्वारा व्यक्ति के गुणों के अनुसार उन्हें पद, सम्मान और पुरस्कार का वितरण करना। इसी कारण अरस्तु का न्याय समानुपातिक कहलाता है। यही अरस्तु का वितरणात्मक न्याय का सिद्धांत कहलाता है।
  2. संशोधनात्मक या सुधारात्मक न्याय –
    • राज्य,बिना भेद-भाव के न्याय से वंचित लोगों को न्याय दिलाने का कार्य करता है। इसलिए व्यक्ति का आचरण सुधारने के लिए दंड का भी प्रयोग किया जाता है।

अरस्तु के अनुसार, राजनीतिक क्षेत्र में न केवल अच्छाई बल्कि सभी के हितों को समाहित करना भी न्याय है।

अरस्तु का परिवार का विचार

अपने गुरू प्लेटो की मान्यता के विपरीत अरस्तु व्यक्तिगत परिवार रखने का पक्षधर है। उसके अनुसार परिवार सामाजिक जीवन की प्राथमिक इकाई है जो न केनल समाज का निर्माण करता है बल्कि उसे बनाये भी रखता है।

परिवार में अरस्तु पति-पत्नी, बच्चे, दास व संपत्ति को शामिल करता है। जिसमें तीन प्रकार के संबंध होते है- मालिक और दास का संबंध, पति और पत्नी का संबंध एवं पिता और संतान का संबंध। परिवार का मुखिया पति होता है जिसमें विवेक सर्वोच्च होता है। पत्नी में विवेक अल्प होता है जबकि बच्चों में विवेक अविकसित होता है।

अरस्तु का संपत्ति का विचार

प्लेटो के संपत्ति के साम्यवाद की आलोचना करते हुए अरस्तु ने संपत्ति का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उसके अनुसार व्यक्ति का मूल विकास नैतिक व आंतरिक होता है किन्तु संपत्ति, उसकी बाह्य आवश्यकताओं की पूर्ति में महत्व पूर्ण भूमिका निभाती है। अरस्तु के मत में संपत्ति मनुष्य के स्वामित्व स्थपित करने की मूल प्रवृत्ति की संतुष्टि कर उसे आत्म संतोष प्रदान करती है।

अरस्तु ने संपत्ति अर्जन के दो प्रकार बताये हैं-

  1. प्राकृतिक –
    • प्राकृतिक विधि से अर्जित संपत्ति, जैसे- कृषि कार्य करना, मछली पालन करना इत्यादि।
  2. शोषणकारी
    • सूद/ब्याज, व्यापार और वाणिज्य से प्राप्त संपत्ति।

लेकिन अरस्तु प्राकृतिक विधि से अर्जित संपत्ति को ही वैध मानता है। और व्यापार व सूदखोरी की आलोचना करता है।

स्वामित्व के आधार पर संपत्ति को निम्न वर्गों में बांटता है-

  1. व्यक्तिगत स्वामित्व और व्यक्तिगत उपयोग (सबसे खतरनाक स्थिति)
  2. व्यक्तिगत स्वामित्व और सामूहिक उपयोग (सबसे अच्छी स्थिति)
  3. सामूहिक स्वामित्व और व्यक्तिगत उपयोग
  4. सामूहिक स्वामित्व और सामूहिक उपयोग

अरस्तु का दासता का विचार

अरस्तु ने दास प्रथा को वैधता प्रदान की है। उसके अनुसार कुछ लोगों को शासन करना चाहिए और अन्य लोगों को शासित होना चाहिए। क्योंकि यह प्रकृति का नियम है कि श्रेष्ठ अधिनस्थों पर शासन करे। इस प्रकार वह दासता को प्राकृतिक बताता है। तथा दास को व्यक्ति की जीवित संपत्ति और परिवार का भाग बताया है।

वे व्यक्ति दास होते हैं जो विवेकशून्य हैं। इसलिए दास प्रथा न केवल दासों के लिए लाभदायक है, क्योंकि उनमें मालिक के साथ रहने से विवेक और नैतिकता का विकास हो जाता है। बल्कि मालिकों के लिए भी उपयोगी है क्योंकि उन्हें शासन कार्यों में भागीदारी के लिए पर्याप्त समय मिलता है। अरस्तु का यह भी मानना था कि जब दास में विवेक और नैतिकता का विकास हो जायेगा तो उसे आज़ाद कर दिया जायेगा।

अरस्तु का क्रांति का सिद्धान्त

अरस्तु की प्रसिद्ध पुस्तक पॉलिटिक्स के अध्याय पाँच में क्रान्ति का विचार मिलता है। जिसके अनुसार राजनीति, शासन प्रणाली या संविधान में परिवर्तन ही क्रान्ति है। चाहे यह परिवर्तन छोटा हो या बड़ा जैसे – कुलीनतंत्र का गुटतंत्र और राजतंत्र का लोकतंत्र दोनों ही क्रान्ति हैं।

अरस्तु ने क्रान्ति के कारणों को दो भागों में विभाजित किया है-

  1. क्रान्ति के सामान्य कारण-
    1. विशेषाधिकारों के कारण उत्पन्न असंतोष अर्थात् समाज में अमीर व गरीब के बीच असंतुलन।
    2. शासक वर्ग की धृष्टता तथा लोलुपता अर्थात् अयोग्य शासक।
    3. लोगों के द्वारा समाज में भय पैदा करने के लिए सत्ता हथियाना।
    4. राज्य का असंतुलित विकास अर्थात् किसी एक अंग के पास अत्याधिक शक्तियां हों।
    5. जातिगत टकराव और विरोध
    6. राजनीतिक सत्ता के लिए दलों में संघर्ष।
  2. क्रान्ति के विशेष कारण-
    1. लोकप्रिय नेता लोगों को शासन के विरुद्ध भड़काए और सभी शक्तियों को स्वयं प्राप्त करने का प्रयास करे।
    2. शासन तंत्र में आपसी झगड़ा व गुटबंदी के कारण।

क्रांति को रोकने के उपाय

  1. लोगों में कनून के प्रति आज्ञाकारिता व सम्मान की भावना बनाए रखना।
  2. शासक वर्ग का जनता के साथ अच्छा व्यवहार हो।
  3. संपत्ति का संकेन्द्रण किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष के पास न हो।
  4. समाज विषमता से मुक्त हो।
  5. जन सामान्य में देशभक्ति की सर्वोच्च भावना बनाना।

अरस्तु के अनुसार, क्रान्ति को रोकने का सबसे उपयुक्त साधन ‘पोलिटी’ (मध्य मार्ग का शासन) है।

नोट – अरस्तु के PYQ आधारित नोट्स पढ़ने के लिए क्लिक करें – अरस्तु के सिद्धांत 

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