अधिकार के सिद्धांत के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। जिसमें विचारकों के अनुसार अधिकार के सिद्धांत का वर्णन, अधिकार के सिद्धांतों के प्रकार और अधिकार के सिद्धांतों को समझाकर बताया है। जो TGT Civics, PGT Civics, LT Civics, GIC Political Science, UGC NET Political Science, Political Science Assistant Professor, etc. के विगतवर्षों में आयोजित परीक्षाओं के प्रश्नो पर आधारित है।
वैधानिक अधिकार का सिद्धांत
वैधानिक अधिकारों के सिद्धांत की शक्ति कानूनी होती है। अर्थात इन अधिकारों को कानून की मान्यता प्राप्त होती है। इसलिए इनको कानूनी अधिकार कहा जाता है। ये अधिकार व्यक्ति को राज्य के द्वारा दिए जाते हैं। बेंथम, वैधानिक अधिकारों का समर्थन करते हुए कहता है कि “अधिकार केवल कानूनो का तथा केवल कानूनों का फल है। बिना कानूनों के कोई अधिकार नहीं, कानूनों के खिलाफ कोई अधिकार नहीं और कानूनों से पहले कोई अधिकार नहीं।” वैधानिक या कानूनी अधिकारों के समर्थकों में बेंथम, आस्टिन और हालैण्ड आदि हैं। अधिकारों के कानूनी सिद्धांत की वकालत करने का श्रेय ऑस्टिन को जाता है।
राजनीतिक अधिकार का सिद्धांत
राजनीतिक अधिकार के अंतर्गत मतदान करना, किसी पद हेतु निर्वाचित होना तथा सरकार का विरोध करना सम्मिलित होते हैं। परंतु मतदान करना और निर्वाचित होना वैधानिक अधिकार भी हैं। भारत में नागरिकों को प्राप्त होने वाले राजनीतिक अधिकार जैसे राजनीतिक विचार व्यक्त करना, राजनीतिक आन्दोलनों को समर्थन देना और राजनीतिक दल को वित्तीय योगदान देना सिविल सेवकों को प्राप्त नहीं होते हैं। परंतु राजकीय और राष्ट्रीय चुनावों में मतदान का अधिकार प्राप्त होता है।
प्राकृतिक अधिकार का सिद्धांत
अधिकारों का सबसे पुराना सिद्धांत प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत है जिसके प्रवर्तक लॉक को माना जाता है। लॉक के सामाजिक समझौते सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति को प्राकृतिक अवस्था में तीन प्राकृतिक अधिकार प्राप्त थे। जो संपत्ति का अधिकार, जीवन का अधिकार और स्वतंत्रता का अधिकार हैं। प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत सामाजिक समझौता सिद्धांत का एक भाग है।
प्राकृतिक या नैसर्गिक सिद्धांत के अनुसार “अधिकार इसलिए लागू किए जाते हैं क्योंकि वे अधिकार हैं। वे अधिकार इसलिए नहीं हैं कि उन्हें लागू किया गया है।” सामाजिक समझौते का सिद्धांत हॉब्स, लॉक और रूसो ने प्रतिपादित किया।
हॉब्स के अनुसार ‘प्राकृतिक अधिकार का अभिप्राय अपने जीवन के संरक्षण के लिए मनुष्य को कोई भी कार्य करने की स्वतंत्रता होना है।’ हॉब्स, लॉक, रूसो, मिल्टन, वाल्टेयर, टॉमस पेन, हर्बट स्पेन्सर और ब्लेकस्टोन आदि विद्वानों ने प्राकृतिक या नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत का समर्थन किया है।
नैसर्गिक अधिकारों की मान्यता है कि, अधिकार समाज से पूर्व भी मौजूद थे। इसी आधार पर इनकी आलोचना भी की जाती है। उपयोगितावादी विचारक बेन्थम ने कहा कि, “प्राकृतिक अधिकारों का अधिकार एक बकवास है।” उसने इन अधिकारों का वर्णन करते हुए कहा है कि, “ये पूर्णतः मूर्खतापूर्ण तथा अप्राकृतिक उच्चता के आसन पर बैठी अलंकारिक मूर्खता के द्योतक है।”
अधिकार का ऐतिहासिक सिद्धांत
अधिकारों के ऐतिहासिक सिद्धांत के अंतर्गत यह माना गया है कि अधिकार किसी समाज की प्रथाओं एवं परंपराओं का परिष्कृत रूप है। इस सिद्धांत के समर्थक एडमंड बर्क, हीगल और ब्रेडले हैं।
अधिकार का आदर्शवादी सिद्धांत
अधिकार का आदर्शवादी सिद्धांत आंतरिक विकास को अधिक महत्व देता है। आदर्शवादी विचारक ग्रीन के अनुसार अधिकार का तात्पर्य उन शक्तियों से है जो एक नैतिक प्राणी के रूप में अपना पूर्णत्व प्राप्त करने के निमित्त मनुष्य के लिए आवश्यक है।
आत्मनिर्णय के अधिकार का सिद्धांत
आत्म-निर्णय के अधिकार की अवधारणा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति से संबंधित है। जिसका आशय है कि सम्प्रभु देश अपने हितों की रक्षा हेतु सभी प्रकार के निर्णय लेने के लिए सक्षम है। इसका प्रयोग प्रथम विश्व युद्ध के दौर में तथा उसके पश्चात विश्व के अधिकांश राज्यों के द्वारा किया गया।
अधिकार के अन्य सिद्धांतोंं का सूची
- प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत – अधिकार पूर्व नागर और पूर्व सामाजिक हैं।
- अधिकारों का वैधानिक सिद्धांत – अधिकार राज्य की कृति है।
- अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत – अधिकार परंपराओं की उपज है।
- सामाजिक अधिकार के अंतर्गत शिक्षा का अधिकार, समानता का अधिकार और जीवन का अधिकार सम्मिलित हैं।
अधिकारों के सिद्धांत के प्रवक्ता-
- अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धांत – ग्रीन
- अधिकारों का नैसर्गिक सिद्धांत – जॉन लॉक
- अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत – एडमण्ड बर्क
- अधिकारों का वैधानिक सिद्धांत – जेरेमी बेन्थम
आधिकार के सिद्धांत के संबंध में विचारकों के मत
- आदर्शवादी विचारक बोसांके के अनुसार, “अधिकार विवेक आधारित वह मांग या दावा है जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है।”
- अधिकार के संबंध में महात्मा गाँधी का प्रसिद्ध कथन है कि, “अपने कर्त्तव्य का पालन कीजिए, अधिकार आपको स्वयं ही मिल जायेंगे।”
- राज्य अधिकारों का सृजन नहीं करता बल्कि अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। यह कथन नारमल वाइल्ड का है।
- अधिकार इस तथ्य से जनित है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह कथन गिलक्राइस्ट का है।
- अधिकार इच्छा-संतुष्टि की शक्ति है। यह कथन हॉब्स का है। हॉब्स आत्म-रक्षा के अधिकार को व्यक्ति का मूल अधिकार मानता है।
हेराल्ड जे. लास्की के अनुसार अधिकार
हेराल्ड जे. लास्की द्वारा अधिकारों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि “अधिकार वास्तव में सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना आमतौर से कोई व्यक्ति अपने आप में श्रेष्ठतम नहीं हो सकता।” लास्की के अनुसार, “प्रत्येक राज्य उन अधिकारों से जाना जाता है जिनकी वह व्यवस्था करता है।” लॉस्की ने कहा है कि, “नागरिक को काम करने का अधिकार है….उसे अस्तित्व के साधनों के अभिगमन से वंचित करना जो उसके व्यक्तित्व के विकास को संभव बनाती है”
जॉन लॉक के अनुसार अधिकार
प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का प्रवर्तक लॉक को माना जाता है। लॉक के सामाजिक समझौते सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति को प्राकृतिक अवस्था में तीन प्राकृतिक अधिकार प्राप्त थे। जो संपत्ति का अधिकार, जीवन का अधिकार और स्वतंत्रता का अधिकार हैं। लॉक के विचारों की प्रमुख विशेषताएं- या लॉक ने निम्न विचारों का समर्थन किया-
- व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन
- संपत्ति का श्रम सिद्धांत
- राज्य व समाज में अंतर
- राज्य को साधन और व्यक्ति को साध्य माना
- नागरिकों को सरकार के विरुध विद्रोह या क्रांति के अधिकार का समर्थन
- विवेकशील मानव की कल्पना
टी. एच. ग्रीन के अनुसार अधिकार
ग्रीन लॉक की मान्यताओं का खण्डन करते हुए कहता है कि किसी भी व्यक्ति को समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त अधिकारों के अतिरिक्त और कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। समाज के सदस्यों के सार्वजनिक कल्याण की भावना के अभाव में अधिकार हो ही नहीं सकते। अतः ग्रीन के अनुसार “समाज के विरुद्ध अधिकार परस्पर विरोधी अभिव्यक्ति है।”
अरस्तु के अनुसार अधिकार
“संविधान राज्य के कार्य तथा नागरिकों के अधिकार निश्चित करता है।” – अरस्तु। अरस्तु के द्वारा संविधान शब्द का प्रयोग नहीं किया गया बल्कि पॉलिटिया शब्द का प्रयोग किया गया। जिसे अंग्रेजी में कान्टीट्युशन कहते है। अरस्तु के अनुसार, ‘संविधान राज्यों के पदों की एक व्यवस्था है, जिसमे यह निर्धारित किया जाता है कि राज्य का कार्य कैसा होना चाहिए। नागरिकों के अधिकार कैसे होने चाहिए। तथा राज्य का सर्वोच्च पद किसे प्राप्त हो।’
फ्रांसीसी एवं अमेरिकी क्रांतियों में अधिकार की अवधारणा
फ्रांसीसी एवं अमेरिकी क्रांतियों ने प्राकृतिक (नैसर्गिक) अधिकारों की अवधारणा का समर्थन किया। इन्हीं अधिकारों की रक्षा करना इन क्रांतियों का मुख्य आधार था। जिनमें अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, न्याय एवं बन्धुत्व शामिल हैं। फ्रांसीसी क्रांति (1789) का तो नारा ही स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का था।
फ्रांसीसी मानव अधिकार घोषणापत्र इमेन्युअल जोसेफ सेमेस और थामस जैफरसन की सलाह पर तैयार किया गया था। इस घोषणा पत्र में स्वतंत्रता, समानता और विश्व बंधुत्व का उल्लेख मिलता है। घोषणा पत्र में कहा गया है कि “मानव, अधिकारों के संदर्भ में स्वतंत्र जन्मा है और स्वतंत्र रहेगा। एडमण्ड बर्क का कहना है कि ‘फ्रांस की क्रांति व्यक्ति अमूर्त अधिकारों पर आधारित थी, जबकि अंग्रेजी क्रांति अंग्रेजों के परम्परगत अधिकारों पर आधारित थी।’ बर्क अधिकारों के ऐतिहासिक सिद्धांत का समर्थक है।
अधिकारों के सिद्धांत के प्रकार
अधिकारों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा गया है –
- नकारात्मक अधिकार
- सकारात्मक अधिकार
नकारात्मक अधिकार ऐसे अधिकार हैं जिसमें राज्य व समाज के द्वारा व्यापक रूप से कोई दखलंदाजी नहीं की जाती है। उदारवादी-पूंजीवादी राज्यों में ये अधिकार मिलते हैं। और सकारात्मक अधिकार वे अधिकार हैं जो दूसरे लोगों व राज्य पर यह दायित्व डालते हैं कि वे सकारात्मक रूप से व्यक्ति की मदद करें। समाजवादी राज्यों में ये अधिकार प्राप्त होते है। नकारात्मक अधिकारों में गैर-हस्तक्षेप शामिल होता है। जबकि सकारात्मक अधिकारों में कर्त्तव्य शामिल होते हैं। कल्याणकारी राज्यों के अंतर्गत दानों प्रकार के अधिकारों का मिश्रण होता है।
स्पेन्सर ने अधिकारों को दो भागों में विभाजित किया है –
- निजी अधिकार
- सार्वजनिक अधिकार
निजी अधिकार का आशय व्यक्ति की संपत्ति एवं कुटुम्ब से संबंधित अधिकारों से है। जबकि सार्वजनिक अधिकारों का संबंध इस बात से है कि व्यक्ति का राज्य के साथ संबंध कैसा है?
अधिकारों की श्रेणियाँ
ऐतिहासिक विकासक्रम के आधार पर मानव अधिकारों को सामान्यतः तीन श्रेणियों या पीढ़ी में बाँटा जाता है। जिनका वर्णन निम्न प्रकार है।
अधिकारों की प्रथम श्रेणी
प्रथम श्रेणी केे मानव अधिकारों कि प्रकृति मूल रूप से राजनीतिक थी। जो 17वीं और 18वीं सदी के दौर में प्राप्त मानव अधिकार जिनमे जीवन का अधिकार, समानता, उत्पीड़न और दासता से मुक्ति, स्वतंत्रता और महिलाओं को मतदान का अधिकार इत्यादि हैं। जोकि अमेरिकन और फ्रांसीसी क्रांति से अत्यधिक प्रभावित थे।
अधिकारों की द्वितीय श्रेणी
दूसरी श्रेणी के मानव अधिकारों के अंतर्गत 19वीं सदी के अधिकारों को रखा जाता है जिनमे शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार और आवास का अधिकार आदि सम्मिलित है। जिनकी प्रकृति सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक है।
अधिकारों की तृतीय श्रेणी
तृतीय श्रेणी में 20वीं सदी अर्थात वर्तमान समय के अधिकारों को रखा गया है। जो नागरिक और समाज से परे के हैं। इसमें आत्मनिर्णय का अधिकार, स्वस्थ वातावरण का अधिकार, प्राकृतिक संसाधनों का अधिकार एवं सांस्कृतिक विरासत में भागीदारी का अधिकार शामिल है।
परिक्षाओं में पूछे गए अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
- अधिकारों के बर्क-पेन विवाद अधिकारों के संदर्भगत या सार्वभौमिक होने पर, अधिकारों के वास्तविक या काल्पनिक होने पर तथा अधिकारों के ऐतिहासिक या प्राकृतिक होने पर केन्द्रित था। न कि अधिकारों के राजनीतिक या आर्थिक होने पर।
- 1766 से सूचना के अधिकार को लागू करने वाला विश्व का प्रथम देश स्वीडन है।
- गार्नर का मानना है कि अधिकारों का वास्तविक संरक्षण जनमत द्वारा होता है।
- ह्यूगो ग्रोशस (1583-1645) ने स्व-रक्षा अधिकारों के प्रवर्तन, क्षति के लिए मुआवजा माँगना तथा गलत करने वालों को दण्ड देने को न्यायोचित युद्ध का कारण माना है।
- मानव अधिकारों की धारणा की सार्वभौमवाद के परिप्रेक्ष्य में आलोचना की जाती है।
- वैधता, शक्ति और प्राधिकार (सत्ता) के बीच की कड़ी अर्थात निर्भेदक तत्व है।
- स्थानीय कानूनों को बनाने तथा लागू करने की स्वतंत्रता, अधिकारों को प्रदान करने की क्षमता और दायित्वों के निर्वहन का अंतर्राष्ट्रीय विधि के अंतर्गत होना राज्य कहलाता है।
- “जब तक शासक दार्शनिक या दार्शनिक शासक नहीं होंगे, राज्य की बुराइयों का अंत नहीं होगा” – प्लेटो (द रिपब्लिक)।
- मैकफर्सन का मानना है कि “संपत्ति इच्छा पूर्ति के लिए आवश्यक है।”
- फ्रांस के अराजकतावादियों में अग्रणी विचारक प्रूधो ने अपनी पुस्तक ‘ह्वाट इज प्रॉपर्टी’ (What is Property – 1840) में कहा कि “संपत्ति चोरी का परिणाम है।”
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