अगन्नासुत्त के राजनीतिक विचार के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। अगन्नसुत्त बुद्धवादी परंपरा का एक ग्रांथ है। जिसमें बौद्ध धर्म में राजनीति संबंधी विचार मिलते हैं। राज्य का समझौतावादी सिद्धांत मिलता है। और राजा के मूल गुणों, अधिकारों व कर्त्तव्यों का उल्लेख मिलता है। इस लेख में बौद्ध धर्म की मूल दार्शनिक अवधारणाएँ (चार आर्य-सत्य व अष्टांगिक मार्ग) का भी विवरण है।
अगानासुत्त और बौद्ध परंपरा
अगन्नासुत्त (अगानासूत्र) बौद्ध साहित्य ‘दीर्घ निकाय’ के 35 सुत्तों में से 27वाँ सुत्त है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक ‘गौतम बुद्ध’ जी है। जिनका जन्म 563 ईसा पूर्व शाक्य गणराज्य के लुबिनी (नेपाल) में हुआ। बौद्ध धर्म साहित्य में त्रिपिटकों (विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक) का विशेष महत्व है। दीर्घनिकाय इन्हीं पिटकों में से सुत्तपिटक का प्रथम निकाय है।
अगानासुत्त के मूल विचार
अगन्नासुत्त के राजनीतिक विचार जीवन की उत्पत्ति, समाज व्यवस्था एवं जातियों की उत्पत्ति से संबंधित है। बुद्ध जी ने कहा कि जाति के आधार पर नैतिक कार्यों व धम्म का वर्णन नहीं किया जाता और कोई भी व्यक्ति चारों जातियों में से भिक्षुक बन सकता है, तथा अरहन्त के स्तर पर पहुंच सकता है। लोगों का मूल्यांकन जन्म के आधार पर नहीं होता बल्कि कर्म के आधार पर होता है।
महात्मा बुद्ध ने धम्म को व्यक्ति के इस जन्म और मोक्ष प्राप्त के लिए सर्वोत्तम बताया है। धम्म अर्थात् धर्म का अर्थ वही है जो सबके लिए ज्ञान के द्वार खोले और विद्वान वही है, जो अपने ज्ञान की रोशनी से सबको रोशन करे।
बौद्ध धर्म (अगानासुत्त) में राजनीतिक विचार
बौद्ध धर्म में राजनीति का मूल आधार, नैतिकता है। यदि राजा नैतिक आचरण नहीं करेगा, तो मंत्री व प्रजा भी अधार्मिक हो जाएगी। इस प्रकार बुद्धवादी परंपरा में राजनीति व धर्म एक साथ विद्यमान है। यद्यपि धर्म व राजनीति में गहन संबंध है परंतु राजनीति का एक अलग विचार भी है जिसके अनुसार राजनीति एक नैतिक बुराई, धोखेबाजी व चालाकी का पर्याय और निंदनीय है।
इसी विचार का बौद्ध भिक्षु पुंडरीक ने भी समर्थन किया इनके अनुसार बौद्ध भिक्षुओं को राजा व राजकुमार के साथ नहीं बैठना चाहिए तथा न ही राजकीय पद को ग्रहण करना चाहिए। अश्वघोष ने भी अपनी पुस्तक बुद्ध चरित में इसी मान्यता को माना है इन्होंने लिखा कि राजनीति, धर्म व नैतिकता दोनों के विरूद्ध है, परंतु बुरी होते हुए भी आवश्यक है क्योंकि समाज में राज्य के द्वारा ही व्यवस्था बनाए रखना संभव है।
राज्य का विचार
अगन्नासुत्त के राजनीतिक विचार (बौद्ध धर्म) के अनुसार राज्य, समझौते का परिणाम है। दीर्घ निकाय नामक ग्रंथ के अनुसार पहले धरती पर स्वर्ण युग था, जिसमें लोगों में सामजस्य व प्रसन्नता थी। और व्यक्ति सद्गुणी व खुशहाल था। कालांतर में लोग लालची व स्वार्धी हो गए तथा अन्य बुराइयां उत्पन्न हुई व अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। इसी के परिणाम स्वरूप लोगों ने आपसी समझौते के द्वारा राजा का चयन किया। जिसके लिए व्यक्तियों ने अपनी फसल का कुछ भाग राजा को देना निर्धारित किया।
बुद्धवादी राजा के मूल गुण या राजा बनने की पूर्व शर्तें
बौद्ध ग्रांथ अंगुत्तर निकाय में राजा के मूल गुणों का वर्णन किया गया है। जो निम्न हैं –
- राजा अच्छे कुल का होना चाहिए। (राजा के माता और पिता दोनों का कुल अच्छा हो)
- राजा का कुल सात पीढ़ियों तक शुद्ध व पवित्र होना चाहिए।
- राजा देखने में आकर्षक व प्रिय तथा उसे एक कुशल योद्धा होना चाहिए।
- राजा के पास धन-धान्य व सोने-चांदी जैसी संपत्ति होनी चाहिए, अर्थात् राजा धनवान होना चाहिए।
राजा के अधरिकार व कर्त्तव्य
राजा के कर्त्तव्यों का उल्लेख दीर्घ निकाय व जातक कथाओं में मिलता है। जो निम्न प्रकार है –
- राजा का मूल कर्त्तव्य प्रजा की सुरक्षा करना है।
- राजा के द्वारा नागरिकों पर उचित करारोपण करना चाहिए। तथा गरीबों पर आर्थिक सहायता भी करनी चाहिए।
- राजा को सदैव नैतिक नियमों का पालन करना चाहिए। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनैतिक माध्यमों का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए। यहां तक की युद्ध काल में भी न्यायपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
- राजा के द्वारा विधि का उल्लंघन करने वाले को न्यायपूर्ण तरीके से दंड देना चाहिए।
- राजा को शत्रु राज्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, चाहे वह कितना भी कमजोर क्यों न हो?
- राजा के पास अनुशासित न आज्ञाकारी सेना अवश्य होनी चाहिए।
बौद्ध धर्म की मूल दार्शनिक अवधारणाएँ
बौद्ध धर्म एक मध्यममार्गी एवं व्यावहारिक धर्म के रूप में सामने आया। यह धर्म वैदिक धर्म में उत्पन्न हुई कुरीतियों तथा समस्याओं के विरोध का परिणाम था। अतः महात्मा बुद्ध ने जीवन के कष्टों से छुटकारा पाने के लिए नए दर्शन तथा जीवन पद्धति की आधारशिला रखी। इसीलिए गौतम बुद्ध जी को एशिया का ज्योति पुंज कहा जाता है। बौद्ध धर्म की मूल संकल्पना में चार आर्य सत्य की अवधारणा है जिसमें दुःख की संपूर्ण व्याख्या की गई है। महात्मा बुद्ध ने दुःख के निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग की नई संकल्पना प्रस्तुत की थी।
गौतम बुद्ध जी के चार आर्य-सत्य
बौद्ध धर्म में चार आर्य-सत्य का महत्वपूर्ण स्थान है। जो निम्न प्रकार है-
- दुःख है (अर्थात् संसार में सर्वत्र दुःख है।)
- दुःख का कारण है।
- दुःख का निवारण संभव है, अथवा विनाश संभव है।
- दुःख के निवारण का मार्ग है।
गौतम बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग
बुद्ध जी के अनुसार दुःख निवारण के आठ उपाय हैं। इन्हीं उपायों को आष्टांगिक मार्ग कहा जाता है। जो इस प्रकार हैं-
- सम्यक् ज्ञान (सम्यक् दृष्टि) – जिसका अर्थ है कि चार आर्य सत्य का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।
- सम्यक् संकल्प – सांसारिक विषयों (राजद्वेष, मोह आदि), दुर्गुण (हिंसा आदि) व भोगों का परित्याग करने का दृढ़ निश्चय है।
- सम्यक् वचन – इसका आशय, अनुचित एवं मिथ्या बातों का त्याग करके सत्य के अनुसार आचरण करना है।
- सम्यक् कर्मांत – अर्थात् हिंसा, द्रोह, दुराचार, वासना इत्यादि से संबंधित दुष्कर्मों का परित्याग करके हमेशा शुभ कार्य करना।
- सम्यक् आजीव (आजीविका) – जिसके अंतर्गत उचित व न्यायपूर्ण तरीकों द्वारा जीविकोपार्जन करना आता है।
- सम्यक् व्यायाम – इसका आशय, समस्त बुराई को नष्ट करने व सदैव सत्कर्म करने का प्रयास करना है।
- सम्यक् स्मृति – इसका अर्थ है कि लोभ, मोह, क्रोध इत्यादि दोषों से मुक्त होकर चित्त की शुद्धि करना है।
- सम्यक् समाधि – अर्थात् राग, द्वेष इत्यादि द्वंद्वों से मुक्त होकर चित्तपूर्ण एकाग्रता प्राप्त करना।
बुद्धवादी परंपरा के अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
- बौद्ध धर्म के अष्टांगिक मार्ग में सम्यक आजीव वह मार्ग है जो हत्या के लिए जानवरों के व्यवसाय को प्रतिबन्धित करता है।
- प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ जो अहिंसा को महानतम गुण मानता उसे सुत्तनिपात कहते है।
इन्हें भी पढ़े-
मनु के राजनीतिक विचार
कौटिल्य के राजनीतिक विचार
राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धांत
दीन दयाल उपाध्याय के राजनीतिक विचार
डॉ. भीमराव अम्बेडकर के राजनीतिक विचार