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बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार

बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। जिसमें तिलक जी का परिचय एवं योगदान, सामाजिक सुधार की धारणा, तिलक के स्वराज का विचार, तिलक के राष्ट्रवाद का विचार, तिलक के बारे में विभिन्न विद्वानों के मत या कथन तथा तिलक जी की पुस्तकों का विवरण है।

बाल गंगाधर तिलक का परिचय

बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के कोंकण जिले के रत्नागिरी (तत्कालीन बम्बई प्रेसीडेन्सी) में हुआ था। इन्हें मूलतः गर्म दल के नेता के रूप में जानते हैं। ‘लाल-बाल-पाल’ कहलाने वाली गरम दल के स्वतंत्रता सेनानियों की तिकड़ी में लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिन चन्द्र पाल शामिल थे। तिलक की लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें ‘लोकमान्य’ की उपाधि दी गई थी।

बाल गंगाधर तिलक के योगदान

1 जनवरी 1880 को चिपलूणकर के साथ मिलकर पूणे में न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना की थी। आगरकर के साथ तिलक जी के द्वारा 1881 में ‘केसरी’ मराठी भाषा में और ‘मराठा’ अंग्रेजी भाषा में, पत्रिकाओं का सम्पादन किया गया। 1885 में ‘दक्कन ऐजुकेशन सोसायटी’ नामक सार्वजनिक संस्था की स्थापना की, जहां इनका आगरकर के साथ मतभेद हो गया।

जनता में अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति आत्मगौरव की भावना जगाने के लिए 1893 में ‘गणपति महोत्सव’ और 1895 में ‘शिवाजी महोत्सव’ का आरंभ किया गया। 1908 में तिलक पर मुजफ्फरपुर बम काण्ड (प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस) का समर्थन करने के कारण देशद्रोह का आरोप लगा कर बर्मा के माडले जेल में भेज दिया गया था। बर्मा जेल में इन्होंने ‘गीता रहस्य’ और ‘द आर्कटिक होम इन द वेदाज’ नामक पुस्तकें लिखी थीं।

1916 में कंग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में नौ वर्ष के बाद भाग लिया। जिसमें तिलक जी के प्रयासों से ही कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य समझौता हुआ जिसे ‘लखनऊ समझौता’ कहा जाता है। 1918 में सर्वसम्मति से कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गये किन्तु शिरोल केस में इंग्लैंड जाने के कारण अध्यक्ष पद को धारण नहीं कर पाये। 1 अगस्त 1920 को मुम्बई में इनका निधन हो गया।

तिलक की सामाजिक सुधार की धारणा

तिलक के अनुसार व्यक्ति को संसार में निःस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों को पूरा करने में श्रेष्ठतम शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए तथा आवश्यकता पड़ने पर प्राण भी देने चाहिए परन्तु किसी भी स्थिति में अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। तिलक ने बाल-विवाह और छूआछूत का विरोध किया। उनके शब्दों में यदि छूआछूत ईश्वरीय आदेश का परिणाम है, तो वे ईश्वर को ही नकार देंगे। तिलक ने समाज सुधारों के लिए व्यवस्थापन की अपेक्षा जन-जागृति पर बल दिया। क्योंकि उनका मानना था कि समाज सुधार बल प्रयोग द्वारा थोपे नहीं जा सकते।

तिलक के अनुसार पहले राजनितिक अधिकार और स्वराज्य प्राप्त होना चाहिए उसके बाद सामाजिक सुधार होना चाहिए जबकि उदारवादी अथवा नरमपंथी यह मानते थे कि पहले सामाजिक सुधार होना चाहिये उसके बाद राजनीतिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए। इसी कारण तिलक के सामाजिक विचारों को रूढ़िवादी और सुधार विरोधी बताकर आलोचना की जाती है। किंतु तिलक की यह आलोचना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि तिलक समाज सुधारों के प्रयत्न में ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप और समाज सुधार के नाम पर भारतीय मू्ल्यों की अपेक्षा पश्चिमी जीवन मूल्यों को स्थापित किये जाने के विरोधी थे, न कि समाज सुधार के। इन्होंने समाज सुधार का समर्थन किया किन्तु पश्चिमीकरण का विरोध किया।

तिलक के स्वराज का विचार

तिलक के राजनीतिक विचार पर भारत के धार्मिक ग्रंथो (वेद, रामायण और महाभारत), कौटिल्य के अर्थशास्त्र, शुक्रनीति तथा कामांदक नीतिसार का प्रभाव है। इनके अनुसार स्वराज्य के निम्न तत्व है –

  • शासन करने वाला और शासित होने वाला एक ही प्रजाति, देश और धर्म के होने चाहिए।
  • विधि का शासन होना चाहिए अर्थात् सुशासन होना चाहिए।
  • सरकार आम जनता की भलाई का कार्य करे।
  • सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी और जनता के द्वारा निर्वाचित होनी चाहिए। अर्थात् वे लोकतांत्रिक स्वराज के समर्थक थे।
  • देश का राजनीतिक ढांचा संघात्मक होगा।

तिलक के अनुसार स्वराज न केवल राजनीतिक कार्यक्रम बल्कि यह आध्यात्मिक सिद्धांत भी है। क्योकि स्वराज का विचार व्यक्ति के आत्म नियंत्रण के रुप में भारत के ऋषि मुनियों के द्वारा दिया गया है। इस सम्बंध में बाल गंगाधर तिलक ने कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन (1916) में कहा कि “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” स्वराज्य की महत्ता बताते हुए तिलक ने कहा कि यदि स्वराज्य न मिला तो भारत समृद्ध नहीं हो सकता। स्वराज्य हमारे लिए आवश्यक है।

तिलक के प्रयासों के कारण बंग-भंग विरोधी आंदोलन स्वराज्य आंदोलन में परिवर्तित होने लगा। स्वराज्य आंदोलन के चार तत्व थे –

  1. स्वदेशी,
  2. बहिष्कार,
  3. राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति,
  4. निष्क्रिय प्रतिरोध।

तिलक ने केसरी में लिखा कि ‘हमारा राष्ट्र एक वृक्ष की तरह है जिसका मूल तना स्वराज्य है और स्वदेशी एवं बहिष्कार उसकी शाखाएं है’। निष्क्रिय प्रतिरोध के अंतर्गत स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा को मूल आधार बताया। निष्क्रिय प्रतिरोध का आशय अहिंसक एवं शांतिपूर्ण गतिरोध है।

तिलक के राष्ट्रवाद का विचार

तिलक के राष्ट्रवादी विचार पर आध्यात्मिक एकता और मानवीय एकता तथा कुछ पश्चिमी विचारकों (जैसे- मिल, बर्क और विल्सन) के विचार का प्रभाव है। तिलक के राष्ट्रवाद में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तरफ झुकाव मिलता है। तिलक के शब्दों में सच्चा राष्ट्रवादी पुरानी नींव पर ही निर्माण करना चाहता है। जो सुधार पुरातन के प्रति घोर असम्मान की भावना पर आधारित है उसे सच्चा राष्ट्रवादी रचनात्मक कार्य नहीं समझता। हमें अपनी संस्थाओं को अंग्रेजी साँचे में ढाल कर सामाजिक तथा राजनितिक सुधार के नाम पर उनका अराष्ट्रीयकरण नहीं करना चाहिए।

तिलक के बारे में विभिन्न विद्वानों के मत या कथन

  • भारतीय राष्ट्रवाद के भीष्म, डॉ. वी.पी. वर्मा ने कहा।
  • आधुनिक भारत का निर्माता, महात्मा गांधी ने कहा।
  • भारतीय क्रांति का जनक, जवाहर लाल नेहरू ने कहा।
  • राष्ट्रीय साधना का अवतार, श्री अरविन्दो ने कहा।
  • जिस प्रकार से गांधी जी राष्ट्रपिता हैं, उसी प्रकार से तिलक भारतीय राष्ट्रवाद के पिता हैं।, यह एन. जी. जोग ने कहा है।
  • भारतीय अशांति का जनक बैलेन्टाइन शिरोल ने कहा। शिरोल का यह भी कहना है कि यदि कोई व्यक्ति भारतीय चेतना का जनक होने का दावा कर सकता है वह बाल गंगाधर तिलक ही है।
  • आधुनिक भारत के हक्यूलिस तथा प्रोमेथियस, जी. वी. करन्दीकर ने कहा।

बाल गंगाधर तिलक की पुस्तकें

  • द ओरियन (वेदकाल का निर्माण) 1893
  • द आर्कटिक होम इन वेदाज 1903
  • वैदिक क्रोनोलॉजी एंड वेदांग ज्योतिष
  • गीता-रहस्य 1915
  • हिन्दुत्व

इन्हें भी पढ़े –

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