दीन दयाल उपाध्याय के राजनीतिक विचार के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। जिसमें दीनदयाल उपाध्याय का परिचय एवं प्रभाव, दीनदयाल उपाध्याय के एकात्मक मानवतावाद का विचार, दीनदयाल उपाध्याय के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार, दीनदयाल उपाध्याय के स्वराज का विचार, दीनदयाल उपाध्याय के आर्थिक विचार, दीनदयाल उपाध्याय के अन्त्योदय का विचार तथा दीनदयाल उपाध्याय की पुस्तकों का विवरण है।
पं.दीनदयाल उपाध्याय का परिचय
उपाध्याय जी का जन्म 25 सितम्बर 1916 को मथुरा में हुआ था। बालू जी के कहने पर इन्होने 1937 में ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ की सदस्यता ग्रहण की। उपाध्याय जी ने ‘राष्ट्रधर्म’ नामक मासिक पत्र, ‘पांचजन्य’ नामक साप्ताहिक पत्र और ‘स्वदेशी’ नामक दैनिक पत्र का संपादन किया।
इन्हें सन् 1967 में ‘भारतीय जनसंघ’ के कालीकट अधिवेशन के अध्यक्षत निर्वाचित किया गया। ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में की गई। उस समय भी उपाध्याय जी को उत्तर प्रदेश का महासचिव बनाया गया। इनकी हत्या फरवरी 1968 में मुगलसराय स्टेशन पर हुई।
उपाध्याय जी का राष्ट्रीय उत्तराधिकारी, अटल बिहारी बाजपेयी जी को माना जाता है। पं. दीन दयाल उपाध्याय के राजनीतिक विचार या दर्शन का भाग – एकीकृत मानववाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और लोकतांत्रिक शासन है।
दीन दयाल उपाध्याय के एकात्मक मानवतावाद का विचार
एकीकृत मानववाद का अर्थ को निम्न प्रकार समझ सकते हैं –
- मानव जीवन अलग नहीं है – उपाध्याय जी के अनुसार समाज एक आंगिक ईकाई है और जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग एक दूसरे से अंतरसंबंधित होते हैं। इसी तरह समाज में विद्यमान प्रत्येक व्यक्तियों के बीच एक आंगिक एवं पूरकता का संबंध पाया जाता है। अतः व्यक्तियों के बीच भेदभाव नहीं होता है। व्यक्ति के जीवन की एकांगी व्यवस्था किया जाना उचित नहीं है।
- व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के मध्य सामंजस्य – एकात्म मानववाद की धारणा में व्यक्ति प्रधान है किन्तु उसका राष्ट्र व समाज से कोई टकराव नहीं है। बल्कि व्यक्ति प्रकृति व समुदाय में एकरसता विद्यमान है।
- व्यक्ति की आवश्यक एकता – मनुष्य मात्रा की एकता पर बल दिया वसुधैव-कुटुम्बम् की भावना में माना। जबकि आत्मिक एकता का विचार जाति-धर्म जैसे बंधनों से सीमित नहीं है। जैसे समूची सृष्टि का निर्माण ईश्वर करता है। उसी प्रकार व्यक्ति का निर्माण भी ईश्वर करता है। अतः व्यक्तियों के बीच आत्मिक संबंध विद्यमान होता है। इन्होंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरूषार्थों पर बल दिया है।
दीन दयाल उपाध्याय के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार
उपाध्याय के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित है। उपाध्याय जी के अनुसार राष्ट्र में निम्नलिखित तत्वों की आवश्यकता है –
- भूमि और जनता
- सामूहिक इच्छा व सभी की भावना अर्थात् सामूहिक जीवन की संकल्प
- सिद्धांतों का समुच्चय जो भारत में धर्म के रूप में विद्यमान हैं।
- जीवन के आदर्श
उपाध्याय ने कहा कि केवल भूमि और लोगों से देश या राज्य का निर्माण होता है। जो केवल भौगोलिक सीमाओं को व्यक्त करता है। जबकि राष्ट्र का निर्माण साझे सांस्कृतिक मूल्यों से होता है। जब एक मानव समुदाय के समक्ष एक वृत्त, विचार या आदर्श रहता है और वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृभूमि मानता है तो वह राष्ट्र कहलाता है। राष्ट्र व राज्य के माध्य साध्य व साधन का संबंध होता है।
इनका मानना है कि राष्ट्र में एकात्मक चेतना और मनोवैज्ञानिक लगाव होता है जिसे उन्होंने ‘चिति’ का नाम दिया। चिति के द्वारा जो ऊर्जा और शक्ति प्राप्त होती है उसे उन्होंने विराट का नाम दिया। इनके अनुसार राष्ट्र सदैव दल से प्राथमिक होना चाहिए।
दीन दयाल उपाध्याय के स्वराज का विचार
दीन दयाल उपाध्याय ने भारत के लिए संघात्मक शासन के स्थान पर एकात्मक शासन का समर्थन किया तथा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के निर्माण पर बल दिया। राज्य के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व व स्वतंत्रता पर मनमाना नियंत्रण नहीं होना चाहिए। इस प्रकार इन्होंने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का समर्थन किया। इन्होंने स्वराज की व्याख्या के लिए तीन अनिवार्य पक्ष माने है –
- राज्य का संचालन राष्ट्र में शामिल व्यक्तियों के द्वारा होना चाहिये।
- राज्य का संचालन राष्ट्रीय हितों के अनुकूल किया जाए।
- राज्य में राष्ट्र के हितों का संरक्षण व संवर्धन करने की सामर्थ्य स्वयं में हो। राजनीतिक स्वतंत्रता, राष्ट्रहित के लिए समर्पण व स्वावलंबन स्वराज्य के आवश्यक तत्व हैं।
दीन दयाल उपाध्याय के आर्थिक विचार
उपाध्याय जी ने विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था का सर्थन किया है। पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली व समाजवादी व्यवस्था दोनो का ही विरोध किया और मानवीय अर्थशास्त्र पर बल दिया। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम जीवन स्तर और सभी वयस्क व स्वथ्य व्यक्ति को उपयुक्त रोजगार के अवसर प्रदान करने चाहिए। व्यक्ति और राष्ट्र की न्यूनतम आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साधन उपलब्ध होने चाहिए।
प्राकृतिक संसाधनों का मितव्ययिता से उपयोग करना चाहिए। राष्ट्र की आवश्यकताओं और प्राप्त संसाधनों के आधार पर तकनीकी का विकास करना चाहिए।
दीन दयाल उपाध्याय के अन्त्योदय का विचार
उपाध्याय जी के अन्त्योदय का विचार, गांधी जी के विचारों से समानता रखता है। अन्त्योदय का अर्थ, समाज में विद्यमान सबसे बंचित और गरीब व्यक्ति का उत्थान करना है। जोकि पूरे समाज का नैतिक उत्तरदायित्व भी होता है। उपाध्याय जी के अनुसार, समाज के वंचित वर्गों के उत्थान के बिना राष्ट्र शक्तिशाली नहीं हो सकता और जिस प्रकार परिवार में सभी व्यक्तियों को उचित हिस्सा प्राप्त होता है ठीक उसी प्रकार समाज में भी वंचित वर्गों का ध्यान रखना होगा।
दीन दयाल उपाध्याय की पुस्तकें
- द टू प्लान्स 1958
- डीवैल्युएशन – ए ग्रेट फॉल 1966
- इन्टीग्रल ह्युमैनिज्म 1967
- पॉलिटिकल डायरी 1968
- जनसंघ : सिद्धांत और नीति
- अखण्ड भारत
- सम्राट चंच्रगुप्त मौर्य
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