कार्ल मार्क्स के राजनीतिक विचार के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। जिसमें कार्ल मार्क्स का परिचय, मार्क्स का एतिहासिक भौतिकवाद और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, मार्क्स के राज्य, सर्वहारा वर्ग की तानाशाही और साम्यवाद का विचार, अलगाव का सिद्धांत, अधिशेष का सिद्धांत, कार्ल मार्क्स की पुस्तकें तथा परिक्षाओं में पूछे गए अन्य महत्वपूर्ण कथन का विवरण है। जो TGT Civics, PGT Civics, LT Civics, GIC Political Science, UGC NET Political Science, Political Science Assistant Professor, UPPSC etc. के विगतवर्षों में आयोजित परीक्षाओं के प्रश्नो पर आधारित है।
कार्ल मार्क्स का परिचय
कार्ल मार्क्स का पूरा नाम कार्ल हेनरीस मार्क्स है। यह एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री , इतिहासकार, राजनीतिक सिद्धांतकार और समाजशास्त्री पत्रकार था। कार्ल मार्क्स का जन्म 1818 में प्रशिया जर्मनी में हुआ किन्तु वह किसी भी देश का औपचारिक नागरिक नहीं था। लेकिन बाद में जाकर यह ब्रिटेन में रहने लगा और वहीं से अपने सारे सिद्धांत दिए। कार्ल मार्क्स का जीवनकाल 1818 से 1883 ई. तक का रहा। इनकी पुस्तक का नाम है दास कैपिटल तथा इन्होंने में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो भी लिखी हैं। इनके पार्टनर का नाम फ्रेडरिक एंगेल्स था। कार्ल मार्क्स को आधुनिक कम्युनिज्म का पिता कहा जाता है। कार्ल मार्क्स ने हीगल की आलोचना की है। कार्ल मार्क्स वर्ग संघर्ष की बात करते हैं इनका अध्ययन ऐतिहासिक है और यह समाजवादी विचारक हैं। कार्ल मार्क्स को राजनीतिक अर्थशास्त्र का जनक कहा जाता है।
मार्क्स के दो रूप-
1. यंग मार्क्स
नियो – मार्क्सवादी, यंगमार्क्स अपना आदर्श मानते है। यंगमार्क्स के विचार आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों (पुस्तक) में मिलते है। जिनमें अलगाव की अवधारणा और मार्क्स के दार्शनिक विचार मिलते हैं।
2. परिपक्व(प्रौढ़) मार्क्स
रूढ़िवादी मार्क्सवादी (यूएसएसआर) प्रौढ़ मार्क्स को अपना आदर्श मानते हैं। प्रौढ़ मार्क्स के विचार उसकी पुस्तक दास कैपिटल व कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मिलते है। जिसमें राजनीतिक विचार, राजनीतिज्ञ मार्क्स और क्रांति का सिद्धांत प्रमुख है।
वैज्ञानिक समाजवाद का जनक मार्क्स
कार्ल मार्क्स वैज्ञानिक समाजवाद का जनक है। क्योंकि मार्क्सवादी समाजवाद इतिहास के अध्ययन पर आधारित है। मार्क्स से पहले के साइमन फोरियर तथा ओवन का समाजवाद वैज्ञानिक नहीं था क्योंकि यह कल्पना पर आधारित थे। मार्क्स के शब्दों में “वैज्ञानिक समाजवाद के प्रतिपादन में कहा गया था कि विचारधारा मिथ्या चेतना है।” वैज्ञानिक समाजवाद में उत्पादन के साधनों का सामाजिक स्वामित्व निर्णायक तत्व है।
मार्क्स का समाजवाद
समाजवाद वैज्ञानिक है। समाजवाद का उद्देश्य, साम्यवाद, राज्यविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना। अराजकता को परिभाषित करने के दो तरीके हैं। हॉबीसियन दृष्टिकोण, यह दर्दनाक है। गांधी और मार्क्स दृष्टिकोण, स्वतंत्रता और खुशी की आदर्श स्थिति। मार्क्स के साम्यवाद और गांधी के रामराज्य के बीच समानताएं। अंतर केवल पद्धति में है, गांधीजी शांतिपूर्ण और पूंजीपति वर्ग की अंतरात्मा को अपील करते हैं। मार्क्स के अनुसार, हिंसा परिवर्तन की दाई (जो बच्चे के जन्म में मदद करती है) है। रक्त के बिना कोई जन्म नहीं हुआ है।
मार्क्स से पूर्व के समाजवादी कल्पना लोकीय
मार्क्स ने आरंभिक समाजवादियों को कल्पना लोकीय समाजवादी कहा है। जिसमें प्रमुख विचारक सेंट साइमन, प्राउनवॉन और चार्ल्स फोरियर है।
मार्क्स पर प्रभाव
कार्ल मार्क्स के राजनीतिक विचार पर दो व्यक्तियों हीगल और फेयरबैक का प्रभाव है। मार्क्स हीगल के सामाजिक उद्भव के विचार से अत्यधिक प्रभावित हुआ।
- फ्रांसीसी क्रांति (प्रारंभिक समाजशास्त्री),
- राजनीतिक अर्थव्यवस्था के ब्रिटिश स्कूल (एडम स्मिथ),
जर्मन दर्शनिक, हीगल(Hegel)
हीगल आधिकारिक आदर्शवादी था। इसके विचार के अनुसार, राज्य पृथ्वी पर ईश्वर की यात्रा है, अर्थात राज्य ही ईश्वर है। मानव जाति का इतिहास विचार के आंदोलन का इतिहास है। वास्तविक तर्कसंगत है, तर्कसंगत वास्तविक है। ऐतिहासिक आदर्शवाद, द्वंद्वात्मक आदर्शवाद, हेगेल के सिद्धांत है।
मार्क्स की अध्ययन पद्धति
- संरचनावादी
- वैज्ञानिक
- सुपर संरचना (आर्थिक संरचना ही आधार है)
मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद
कार्ल मार्क्स ने समय के साथ समाज के परिवर्तन का विश्लेषण करने के लिए ऐतिहासिक भौतिकवाद पद्धति का उपयोग किया। जिसमें सामाजिक परिवर्तन का कारण आर्थिक माना है। समाज की उत्पत्ति के समय से ही आर्थिक वर्गों का अस्तित्व बना रहा है। ऐतिहासिक भौतिकवाद उपागम इस विश्वास पर आधारित है कि आर्थिक आधार वैचारिक तथा राजनीतिक अधिसंरचना को निर्धारित करता है। जिसे मार्क्स का आर्थिक नियतिवाद कहा जाता है। इस प्रकार आर्थिक निर्धारण सिद्धांत का प्रतिपादन मार्क्स ने किया है।
वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत
मार्क्स के द्वारा प्रतिपादित वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत इसी ऐतिहासिक भौतिकवाद का उप उत्पाद या उपसिद्धि है। मार्क्स का मानना है कि वर्ग ऐतिहासिक परिवर्तन का मुख्य कारक है। मार्क्स के अनुसार वर्ग का आशय लोगों के ऐसे समूह से है जिनका आर्थिक व्यवस्था में एक जैसा स्थान होता है।
मार्क्स के अनुसार इतिहास
मार्क्स के अनुसार इतिहास भौतिक शक्तियों की उपज है। उसका मानना है आदि काल से ही समाज में होने वाले वर्ग संघर्ष का केन्द्र बिन्दु भौतिक शक्तियाँ रही हैं। और इन्हीं के संघर्ष से इतिहास जन्मा और विकसित हुआ है। इसी कारण मार्क्स ने द कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो में लिखा, कि “अब तक विद्यमान रहे सम्पूर्ण मानव समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है।”
मानवीय इतिहास की अवस्थाएँ
मार्क्स ने अपनी इतिहास की आर्थिक व्याख्या करते हुए अतित और भविष्य के मानवीय इतिहास को छः अवस्थाओं में बांटा है। मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के चरण:-
- आदिम साम्यवादी आवस्था या पूर्व-ऐतिहासिक
- दास व्यवस्था या गुलाम समाज
- सामंती व्यवस्था,
- पूँजीवादी अवस्था,
- सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र की अवस्था या समाजवाद
- साम्यवादी अवस्था।
कुछ लोग कार्ल मार्क्स की व्याख्या आर्थिक नियतिवादक के रूप में करते हैं जबकि अन्य इन्हें मानवोचित समाजवादी के रूप में व्याख्या करते हैं। क्योंकि यह समस्या उनकी अपनी रचनाओं की व्यापकता तथा उसके जटिल स्वरूप से पैदा होती है।
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के अनुसार सामाजिक संरचना की परतों की प्राथमिकता का क्रम –
- उत्पादन की शक्तियाँ
- उत्पादन के संबंध
- कानून और राजनीतिक संगठन
- विचारधारा
मार्क्स ने कहा कि ‘विश्व प्रत्येक अवस्था में उत्पाद और भविष्यवाणी दोनों है’।
मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
द्वंद्वात्मक पद्धति का सर्वप्रथम हीगल के द्वारा प्रतिपादन किया गया। मार्क्स ने हीगल से इसी द्वंद्वात्मक पद्धति के विचार को लिया है। यद्यपि हीगल विचारों को महत्वपूर्ण मानता है और मार्क्स पदार्थ को सर्वाधिक महत्व देता है। भौतिक शक्तियों के आधार पर मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद सामाजिक घटनाओं की व्याख्या और विश्लेषण करता है। मार्क्स पदार्थ को सृष्टि का सार तत्व मानता है।
मार्क्स की द्वंद्वात्मक पद्धति के नियम
- मात्रा का गुणवत्ता में तथा विपरीत रूपान्तरण का नियम या परिणाम के गुण की ओर परिवर्तन का नियम
- विरोधी की एकता का नियम या परस्पर विरोधी तत्वों की अन्तर्व्याप्ति का नियम
- नकारने को नकारने का नियम या निषेध का निषेध का नियम
मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की विशेषताएँ
- इतिहास की संपूर्ण सामूहिक घटनाओं का निर्धारण आर्थिक स्थितियों के द्वारा होता है।
- उत्पादन सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानवीय कार्यकलाप है।
- व्यक्ति अकेले की तुलना में संघ में रहकर अधिक उत्पादन करता है।
- धर्म जनता की अफीम है।
कार्ल मार्क्स की क्रांति के विचार
मार्क्स ने कहा है कि “प्रत्येक क्रांति सामाजिक है क्योंकि यह पुरातन समाज को नष्ट करती है प्रत्येक क्रांति राजनितिक है क्योंकि यह पुरानी शक्ति को नष्ट करती है।” मार्क्स का कहना है कि “दुनियां के मजदूरों एक हो जाओ, पाने के लिए संसार और खोने के लिए केवल जंजीर मात्र है।” इसी लिए मार्क्सवादी दर्शन को मजदूरवादी दर्शन कहा जाता है।
मार्क्स का कथन है कि क्रांतियाँ ही इतिहास को आगे बढ़ाती है। मार्क्स क्रांति को सामाजिक उन्नति का सर्वप्रमुख माध्यम मानता है। इसी कारण कार्ल मार्क्स को एक ‘क्रांतिकारी पंथ के एक मसीहा’ के रूप में माना जाता है। राज्य और क्रांति के बारे में मार्क्स का सिद्धांत फ्रांसीसी क्रांतिकारी परंपरा से लिया गया है।
कार्ल मार्क्स का राज्य
मार्क्स ने राज्य के आधार एवं अधिसंरचना के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। सामाज के दो मूल तत्व है पहला आधार जिसका संबंध उत्पादनों के साधन और प्रणाली से है। और दूसरा अधिसंरचना जिसका संबंध सामाजिक कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक व्याख्या आदि से है। आधार अधिरचना का निर्धारण करता है। इस लिए मार्क्स आधार को प्रमुख तत्व मानता है।
राज्य की उत्पत्ति का कारण
आदिम समाज में साम्यवाद की अवस्था थी जिसमें वर्गों का अभाव था राज्य की कोई आवश्यकता नहीं थी। किन्तु जनसंख्या की वृद्धि के साथ आवश्यकताएँ बढ़ी परिणाम स्वरूप उत्पादन शक्तियों का अधिक विकास हुआ जिससे साम्यवादी व्यवस्था भंग हो गई। और निजी संप्पत्ति का विकास हुआ तथा वर्ग भी अस्तित्व में आ गये। इसी वर्ग विभेद के कारण राज्य का जन्म हुआ है।
बुर्जुआ वर्ग के यंत्र के रूप में राज्य
मार्क्स के शब्दों में राज्य केवल एक ऐसा यन्त्र है जिसकी सहायता से एक वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण करता है। अतः राज्य वर्ग का हथियार है। मार्क्स ने कहा कि “राज्य सदैव ही एक दमनकारी संस्था होती है; यह कभी भी प्रजातांत्रिक संस्था नहीं हो सकती है।” मार्क्स के अनुसार राज्य की उत्पत्ति धनी लोगों के द्वारा गरीबों के शोषण को वैधानिकता प्रदान करने के लिए हुई है।
मार्क्स ने राज्य को बुर्जुआ वर्ग के मामलों के प्रबंधन करने वाली कार्यकारी समिति के रूप में देखा है। दूसरे शब्दों में आधुनिक राज्य की कार्यकारिणी सारे पूँजी पतियों के सामान्य हितों का प्रबंध करने वाली समिति है। मार्क्स के अनुसार राज्य वर्ग शोषण की संस्था है। राज्य एक उत्पीड़न का यंत्र है। मार्क्सवाद के अनुसार राज्य केवल वर्ग संरचना है।
सर्वहारा की तानाशाही
सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व की अवधारणा का प्रतिपादन कार्ल मार्क्स द्वारा ‘दास कैपिटल’ में किया गया। मार्क्स के अनुसार सर्वहारा की तानाशाही एक अल्पकालीन राज्य को व्यक्त करती है। जिसमें राजनीतिक शक्ति सर्वहारा वर्ग के हाथ में होती है। मार्क्स की आलोचना करते हुए मिखाइल बाकुनिन ने यह आशंका व्यक्त की थी कि मार्क्स के सर्वहारा वर्ग की तानाशाही, सर्वहारा वर्ग पर तानाशाही हो जाएगी।
साम्यवाद की अवस्था
एच जे लास्की का कहना है कि “मार्क्स ने साम्यवाद को एक अस्त व्यस्त स्थिति में पाया और उसे एक आंदोलन बना दिया। उसके द्वारा उसे एक दर्शन मिला, एक दिशा मिली।” कार्ल मार्क्स के राजनीतिक विचार में मार्क्स का अंतिम उद्देश्य एक वर्गविहीन समाज स्थापित करना था। जिसे वह साम्यवाद कहता है।
कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक ‘क्रिटीक ऑफ द गोथा प्रोग्राम’ में समाजवादी या साम्यवादी समाज की व्यवस्था के बारे में कहा “प्रत्येक व्यक्ति से उसकी क्षमताओं के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकताओं के अनुसार”। इस प्रकार वर्ग संघर्ष समाप्त हो जायेगा। और राज्य की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी। परिणाम स्वरूप राज्य लुप्त हो जायेगा या विघटित हो जायेगा।
प्रैक्सिस का सिद्धांत
“दार्शनिकों ने केवल दुनिया की व्याख्या की है, दुनिया को बदलने के लिए क्या मायने रखता है”।उनके सिद्धांत को PRAXIS कहते हैं। प्रैक्सिस सिद्धांत पर आधारित कार्यवाही के लिए अग्रणी क्रिया है। यानी हम जो कुछ भी करें वह उचित समझ पर आधारित हो और समझ के आधार पर हमें नीतियां बनानी चाहिए। मार्क्स ने व केवल पूंजीपति वर्ग द्वारा गरीबों के अत्यधिक शोषण को उजागर किया, बल्कि उन्हें सम्मान का जीवन देने के लिए पूंजीवाद को समाप्त करने का वीणा उठाया।
अलगाव या पराएपन का सिद्धांत
मार्क्स ने 1844 के ‘इकॉनॉमिक एण्ड फिलॉसफिक मैनुसक्रिप्ट्स’ में अलगाव की संकल्पना का प्रतिपादन किया है। मार्क्स ने अपनी इसी रचना में श्रम के प्रति उदासीनता संबंधी विचार लिखे हैं।
मार्क्स कहता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में मनुष्य के अंदर अपनेपन का भाव नहीं रहता है। मनुष्य प्रकृति, समाज और स्वयं से भी अलग या पराया हो जाता है। अतः मनुष्य को बचाने के लिए पूंजीवाद की समाप्ति आवश्यक है। मार्क्स ने कहा कि “कामगारों की मुक्ति का आधार स्वयं इनका कार्य है।”
मार्क्स ने कहा है कि श्रम शक्ति, श्रमिक के मस्तिष्क, मांसपेशी तथा नसों के बराबर होती है।
अधिशेष मूल्य सिद्धांत
अतिरिक्त मूल्य श्रमिकों के श्रम का ही परिणाम होता है। अतिरिक्त मूल्य श्रम के उपयोग-मूल्य एवं विनिमय-मूल्य का अंतर है। मुद्रा जब अतिरिक्त मूल्य का सृजन करती है, तो पूंजी बन जाती है। कार्ल मार्क्स के राजनीतिक विचार में पूंजीवाद, माल-अर्थव्यवस्था होती है।
कार्ल मार्क्स का क्रांति का सिद्धांत
संपूर्ण परिवर्तन ही क्रान्ति है। राजनीतिक क्रांति कोई क्रांति नहीं है। आर्थिक क्रांति ही क्रान्ति है। जिसके अंतर्गत उत्पादन के तरीकों पर कब्जा किया जाता है। उत्पादन के तरीके दो हैं। उत्पादन के साधन, उत्पादन की शक्तियाँ। उत्पादन के साधन भूमि, श्रम और पूंजी हैं। उत्पादन की शक्ति प्रौद्योगिकी है।
कार्ल मार्क्स ने चेतना के दो स्तर बताये हैं।- अपने आप में वर्ग, यह निम्न स्तर की चेतना है।
- स्वयं के लिए वर्ग, यह उच्च स्तर की चेतना है।
कार्ल मार्क्स के अनुसार, धर्म जनता के लिए अफीम है, दूर रहो।
कार्ल मार्क्स की पुस्तकें –
- दास कैपिटल (1867) – इसे मार्क्सवाद की वाइबिल कहते हैं। इसमें अधिशेष मूल्य का विचार है।
- क्रिटिक ऑफ दी गोथा प्रोग्राम (1891) – इसमें सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का विचार है।
- पैरिस मैन्युस्क्रिप्ट्स (1932) – यह विसंबंधन से संबंधित है।
- द पॉवर्टी ऑफ फिलॉसफी (1847)
- थीसिस ऑन फियोरबाक (1845)
- कॉट्रिब्यूसन टू दी क्रिटीक ऑफ पोलिटिकल इकोनोमी (1859)
- ‘इकॉनॉमिक एण्ड फिलॉसफिक मैनुसक्रिप्ट्स’ (1844) – इस में मानवतावादी चिंतन है। यंग मार्क्स के विचार इसी पुस्तक में हैं।
- एइटीन्थ ब्रुमेअर ऑफ लुई बोनापार्ट – इसमें राज्य की आपेक्षित स्वायत्तता का विचार है।
- द एसेंस ऑफ क्रिश्चियनिटी
- ओरिजिन ऑफ स्पेसीज
- हिस्टोरिकल इनएविटेबिलिटी
मार्क्स और एंजेल्स की पुस्तकें
- कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो (1848)
- जर्मन आइडियोलॉजी (1845)
- द होली फैमिली (1845)
कार्ल मार्क्स की आलोचना
इबेन्सटीन, कार्ल पॉपर और जार्ज ओरवेल ने आलोचना की है। एम एन राय ने मार्क्सवादी अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की आलोचना की और स्वीकारने से इनकार कर दिया। राय के अनुसार “अतिरिक्त मूल्य के अभाव में कोई समाज प्रगति नहीं कर सकता है।”
पूँजीवाद के विस्तार के साथ मध्यम वर्ग लुप्त हो जाएगा, कार्ल मार्क्स के इस राजनीतिक विचार के विरुद्ध यह कहने वाला प्रथम विचारक बुखारिन था कि मध्यम वर्ग नष्ट नहीं होगा और श्रमजीवी वर्ग की वर्तमान कंगाली भी नहीं होगी। जर्मिनो अपनी पुस्तक ‘पॉलिटिकल फिलॉसोफी एण्ड ओपन सोसाइटी’ (1982) में मार्क्सवाद को राजनीतिक सिद्धांत के बजाए एक विचारधारा मानता है। एक्टन ने मार्क्सवाद को ‘युग का भ्रम’ कहा है।
मार्क्स के दास कैपिटल के बारे में आर. टक्कर का कहना है कि यह अप्रासंगिक पुस्तक जो मेरे विचार में न केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दोषपूर्ण है अपितु आधुनिक विश्व के लिए रुचिकर अथवा प्रयोग के योग्य नहीं है।
परिक्षाओं में पूंछे गए कार्ल मार्क्स से संबंधित महत्वपूर्ण कथन
- मार्क्स के अनुसार कोई भी राजनीतिक व्यवस्था तब तक वैध नहीं है, जब तक वह मनुष्य की मुक्ति के लिए बल नहीं देती है।
- मार्क्स का मानना है कि राज्य मनुष्य के विकास में बाधक होता है।
- कार्ल मार्क्स मनुष्य को होम फेबर के रूप में कल्पित करता है।
- मार्क्स ने कहा है “मनुष्य को सोचने के पूर्व खाना चाहिए। खाने के लिए उसे उत्पादन करना होगा। इस प्रकार उत्पादन एक मूल कार्यकलाप है।”
- विचार भौतिक शक्तियों की अन्योन्य क्रिया का प्रतिबिम्ब होते हैं।
- वस्तु सक्रिय और गतिशील होती है।
- कार्ल मार्क्स ने कहा है कि “स्वयं मेरा अस्तिव एक सामाजिक क्रियाकलाप है तथा क्रियाकलाप और मन अपने संदर्भ में और साथ ही अपने उद्गम में सामाजिक हैं; वे सामाजिक क्रियाकलाप तथा सामाजिक मन हैं।”
- मार्क्स का कथन है कि “धार्मिक तथा राजनीतिक भ्रांतियों से आवृति शोषण के स्थान पर इससे (बुर्जुआ ने) नग्न, बेशर्म, प्रत्यक्ष पाश्विक शोषण को प्रतिस्थापित किया है।”
- मार्क्स ने 1857 के पूर्व भारत में ब्रिटिश राज को ‘विध्वंसात्मक तथा पतनोन्मुखी’ के रूप में वर्णित किया था।
- समाज जिस तरह से व्यवस्थित है, वह स्वाभाविक और सही है तथा उसे चुनौती नहीं दी जा सकती है। कार्ल मार्क्स के अनुसार यह विश्वास शिक्षा व्यवस्था अभिकरण के द्वारा संभव है।
- कार्ल मार्क्स के राजनीतिक विचार में मार्क्स ने विचारधारा को ‘भ्रामक चेतना’ कहा। मार्क्स के अनुसार “विचारधारा मिथ्या चेतना की अभिव्यक्ति है।”
- कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक ‘थीसिस ऑन फायरबाख’ में लिखा है कि ‘दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से दुनिया की व्याख्या की है, जबकि प्रश्न उसे बदलने का है।’
- मार्क्सवादियों का मत है कि वर्गभेद की उत्पत्ति तब हुई जब मनुष्य ने अवस्थित जीवन व्यतीत करना तथा खेती करना प्रारंभ किया गया था।
- अभिजात वर्ग का स्पेकुलेटर्स और रेंटियर्स के रूप में पैरेटो द्वारा किया गया वर्णन मार्क्स के द्वारा वर्णित शासनात्मक गुट के अभिलक्षणों से मिलता जुलता है।
- कॉट्स्की ने कहा “मार्क्सवादी केवल वही है जो वर्ग संघर्ष की मान्यता को मजदूर वर्ग की तानाशाही की मान्यता तक ले जाता है।”
- अल्थूसर ने युवा मार्क्स और वृद्ध मार्क्स के बीच अंतर बताया है। यह अंतर मार्क्स की पुस्तक ‘कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो’ (1848) के पूर्व और बाद का है।
- मार्क्सवाद, पूंजीवाद को हिंसक रूप से उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से मार्क्स का वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धांत है। उनके अनुयायी, इन्हें भगवान मानते हैं। मार्क्स को “असफल भगवान” के रूप में जाना जाता है।
- कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, वर्ग और वर्ग संघर्ष की अवधारणा, पूंजीवाद का विश्लेषण, समाजवाद – सर्वहारा वर्ग की तानाशाही, साम्यवाद इत्यादि सिद्धांत हैं।
- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, इसे हीगल से उधार लिया। जिसमें वर्ग और वर्ग संघर्ष की अवधारणा हैं।
- इतिहास का नियम, इतिहास विचार का आंदोलन है। द्वंदवाद के तीन नियम है। विपरीत की एकता, निषेध का निषेध, गुणवत्ता में मात्रा परिवर्तन है।
- ऐतिहासिक भौतिकवाद – ऐतिहासिक आदर्शवाद के जवाब में। और वैज्ञानिक व्याख्या – मनुष्य का पहला ऐतिहासिक कार्य – वह जानना चाहता था कि सोच है या कार्य।
- कार्ल मार्क्स के अनुसार राष्ट्र या राष्ट्रवाद एक विचारधारा/झूठी चेतना है।
- बेनेडिक्ट एंडरसन के अनुसार राष्ट्र एक आविष्कार परंपरा है।, सच्ची चेतना नहीं है।
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