पंडिता रमाबाई के राजनीतिक विचार के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। जिसमें रमाबाई जी का परिचय एवं योगदान, लैंगिक न्याय का विचार, राष्ट्रवाद का विचार, बाल गंगाधर तिलक की आलोचना तथा पंडिता रमाबाई की पुस्तकों एवं लेख का विवरण है।
पंडिता रमाबाई का परिचय एवं योगदान
रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 को कर्नाटक के कनारा जिले में हुआ। इनके पिता संस्कृत के विद्वान थे, जिन्होंने उन्हें संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन कराया। इसलिए पंडिता रमाबाई को 20 बर्ष कि उम्र में संस्कृत विद्वान होने के कारण ‘पंडिता’ की उपाधि प्रदान की गई। यह कवयित्री थी जिन्होंने महिला उत्थान का कार्य किया। आगे चलकर कलकत्ता में इन्हें ‘सरस्वती’ सम्मान से नवाजा गया था।
रमाबाई जी ने 1881 में ‘आर्य महिला सदन’ की स्थापना की। 1882 में इन्होंने पहली पुस्तक मराठी में ‘स्त्री धर्मनीति’ प्रकाशित की थी। इसी वर्ष इन्होंने आर्य महिला समाज की स्थापना की थी। जो भारत का पहला महिला संगठन माना जाता था। जिसका उद्देश्य ग्रामीण स्त्रियों में शिक्षा की बढ़ोतरी करना तथा बाल-विवाह को रोकना था।
रमाबाई ने 1883 में ईसाई धर्म को स्वीकार किया और अपना नाम बदल कर ‘मैरी रामा’ रखा। इन्होंने हिंदु धर्म में महिलाओं की स्थिति पर प्रश्न उठाए। ब्राह्मण होकर भी एक गैर-ब्राह्मण से विवाह किया। इन्होंने पितृ-सत्तात्मक समाज का भी विरोध किया। रमाबाई जी जबरन धर्मान्तरण की विरोधी थी।
लैंगिक न्याय का विचार
रमाबाई जी ने 1887 में बोस्टन अमेरिका में ‘रमाबाई एसोशिएसन’ की स्थापना की इस संस्था के द्वारा भारत में धर्मनिरपेक्ष स्कूल खोलने का कार्य किया। 1989 में इन्होंने विधवाओं और जातिवाद की समाप्ति के लिए ‘शारदा सदन’ की स्थापना की थी तथा जाति निरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता पर बल दिया। 1898 में इनके द्वारा पथभ्रष्ट स्त्रियों के कल्याण के लिए ‘कृपा सदन’ की स्थापना की थी।
इन्होंने मराठी भाषा में ‘द क्राई ऑफ इंडियन वूमेन’ पुस्तक भी लिखी। रमाबाई जी की पुस्तक ‘द हाई कास्ट हिंदु वुमेन’ को पहला नारीवादी मैनीफेस्टो माना जाता है। जिसमें इन्होंने हिंदू स्त्री के जीवन का आलोचनात्मक वर्णन किया है। रमाबाई ने विधवा विवाह का समर्थन किया। रूढ़िवादी सामाजिक व्यवस्था का विरोध किया जिसके अंतर्गत बाल विवाह और घरेलू हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाई।
रमाबाई जी ने उच्च जाति की हिंदू स्त्री की स्थिति पर भी प्रकाश डालते हुए उनकी तीन आवश्यकताएं बताई है- 1. आत्मनिर्भरता, 2. शिक्षा और 3. कार्यकुशलता। इन्होंने नारीवाद के लिए ‘सीता-सावित्री’ मॉडल का समर्थन किया।
पंडिता रमाबाई को ब्रिटिश सरकार ने समाज सेवा के लिए 1919 में ‘कैसरे-ए-हिन्द’ की उपाधि प्रदान की थी। और 1989 में भारत सरकार द्वारा उनके नाम के डाक टिकट जारी किया गया था।
बाल गंगाधर तिलक के संबंध में विचार
रमाबाई ने बाल गंगाधर तिलक की आलोचना की है। इनके अनुसार तिलक सामाजिक सुधारों और महिलाओं के समान अधिकारों के समर्थक नहीं हैं। क्योंकि तिलक ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों का विरोध करते थे। तिलक का मानना था कि ब्रिटिश सरकार सामाजिक सुधारों के नाम पर भारतीय समाज को विभाजन कर रही है।
राष्ट्रवाद का विचार
पंडिता रमाबाई के राजनीतिक विचार में रमाबाई जी के अनुसार भारत में ऐसे राष्ट्र का निर्माण होना चाहिए, जिसमें सभी नागरिकों को स्वतंत्रता प्राप्त हो। इन्होंने अमेरिका और यूरोपीय देशों की यात्रा की थी। इसलिए इनका मनना था कि आधुनिक भारतीय राष्ट्र का निर्माण अमेरिका के आधार पर होना चाहिए।
पंडिता रमाबाई की पुस्तकें
- द हाई कास्ट हिंदू वुमेन 1887
- हिस्ट्री ऑफ द ब्रह्मो-समाज
- पीपल्स ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स
- ए टेस्टोमनी 1917
- स्त्री धर्मनीति 1882
- वायेज टू इंग्लैंड 1883
- फेमाइन एक्सपीरिएंस इन इंडिया 1890
- द लाइफ ऑफ द क्राइस्ट 1924
- द न्यू टेस्टामेंट 1924
- राइज एंड फॉल ऑफ द आर्यन रेस
- अर्ली लाइफ स्टोरी एंड ट्रेवल्स इन इंडिया
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