Skip to content
Home » सम्प्रभुता के सिद्धांत

सम्प्रभुता के सिद्धांत

सम्प्रभुता के सिद्धांत के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। इसमें संप्रभुता का अर्थ, परिभाषा, प्रकार और विशेषता, संप्रभुता से संबंधित कथन और संप्रभुता के सिद्धांतों का विवरण है। जो TGT Civics, PGT Civics, LT Civics, GIC Political Science, UGC NET Political Science, Political Science Assistant Professor, etc. के विगतवर्षों में आयोजित परीक्षाओं के प्रश्नो पर आधारित है।

संप्रभुता का अर्थ और परिभाषा

संप्रभुता का अंग्रेजी अनुवाद सावरेन्टी (Sovereignty) है। सावरेन्टी शब्द सुप्रेनस (Superanus) शब्द से बना है। जो लैटिन भाषा के शब्द सुपर (Super) और एनस (Eigns) से मिलकर बना है। जिसका अर्थ सर्वोच्च शक्ति होता है। संप्रभुता के सिद्धांत को वेस्टफेलिया की संधि (1648) में व्यक्त किया गया था। इसके द्वारा सभी यूरोपीय राज्य स्वतंत्र और संप्रभुतासंपन्न हो गए और उन्हें समान दर्जा प्राप्त हो गया।

सम्प्रभुता कि अवधारणा का आशय मुख्यतः वैधानिक सम्प्रभुता से है। जिसके अंतर्गत कानून या विधि निर्माण की सर्वोच्च सत्ता प्राप्त होती है जैसे ब्रिटेन की संसद । इस सिद्धांत का समर्थन हॉब्स, बेंथम और ऑस्टिन ने किया है। विधिक संप्रभुता के द्वारा राज्य की सत्ता के पास अंतिम आदेश जारी करने की वैधानिक शक्ति होती है।

ज्यां (जॉन) बोदां की संप्रभुता

फ्रांसीसी राजनीतिक चिंतक ज्यां (जॉन) बोदां ने संप्रभुता को ‘रिपब्लिक का पूर्ण एवं निरंतर शक्ति’ की तरह परिभाषित किया है। बोदां का कथन है कि, “सम्प्रभुता नागरिकों तथा प्रजाजनों के ऊपर सर्वोच्च शक्ति है, जिस पर कानून का कोई नियंत्रण न हो।” बोदां के शब्दों में, “संप्रभुता नागरिकों तथा प्रजाजनों पर वह सर्वोच्च शक्ति है जो कानून से परे है।”

संप्रभुता शब्द का प्रयोग सबसे पहले फ्रांस के न्यायविदों में बोदां के द्वारा किया गया। और राजनीति विज्ञान में सम्प्रभुता के सिद्धांत को सर्वप्रथम प्रस्तुत किया। बोदां के द्वारा सीमित संप्रभुता का सिद्धांत दिया। वैधानिक संप्रभुता की अवधारणा के प्रतिपादक भी बोदां है। बोदां का मत है कि, संप्रभु बिना जनता की सहमति के कर नहीं लगा सकता है। क्योंकि बोदां व्यक्तिगत संपत्ति को पवित्र मानता है।

सैद्धांतिक रूप से बोदां ने संप्रभुता को सर्वोच्च सत्ता माना लेकिन व्यवहारिक रूप में इस पर पाँच प्रतिबंध लगाये जो निम्न हैं-

  • प्राकृतिक नियम का प्रतिबंध
  • संवैधानिक नियम का प्रतिबंध
  • व्यक्तिगत संपत्ति का प्रतिबंध
  • पारिवारिक जीवन का प्रतिबंध
  • धार्मिक और नैतिक मान्यताओँ का प्रतिबंध

बोदां मानता है कि संप्रभुता ईश्वरीय तथा प्रकृतिक कानूनों से सीमित हैं।
परंतु सीमित सम्प्रभुता के सिद्धांत का जनक लॉक को माना जाता है।
वैधानिक संप्रभुता राजनीतिक संप्रभुता की इच्छा के विरुद्ध कार्य नहीं कर सकती है।
सेबाइन का कहना है कि, बोदां आधुनिक नहीं बन सका परंतु वह मध्ययुगीन भी नहीं रहा।

लॉस्की की संप्रभुता

लॉस्की के अनुसार, चूँकि समाज संघात्मक है, सत्ता भी संघात्मक होनी चाहिए। अतः लॉस्की ने सम्प्रभुता को विभाज्य माना है। लॉस्की ने यहां तक कहा की, ‘राजनीतिशास्त्र को इससे बहुत लाभ होगा यदि संप्रभुता के सिद्धांत को तिलांजलि दे दी जाए या हटा दिया जाए।’ ह्येगो क्रैब ने भी कहा है कि, “प्रभुसत्ता की धारणा को राजनीति-सिद्धांत से निकाल देना चाहिए।”

संप्रभुता के प्रकार

संप्रभुता का विभाजन दो भागों में किया जाता है।

  1. विधिक संप्रभुता (De Jure) -अर्थात जो संप्रभुता का प्रयोग करता है।
  2. तथ्यात्मक (वास्तविक) संप्रभु्ता (De Facto) – अर्थात जिसमें संप्रभुता निहित होती है। भारतीय संविधान के अनुसार तथ्यात्मक संप्रभुता जनता में निवास करती है।

वास्तविक और कानूनी (विधिक) सम्प्रभुता साथ-साथ रह सकते है। क्योंकि कानूनी संप्रभुता वास्तविक संप्रभुता पर निर्भर करती है। यथार्थ संप्रभुता को राज्य के आदेश के रूप में परिभाषित किया जाता है। अतः यथार्थ संप्रभुता का तात्पर्य आदेशों के वास्तविक आज्ञा पालन से लगाया जाता है।

संप्रभुता की विशेषताएं

सम्प्रभुता राज्य का प्रमुख गुण है और यह संसद, सम्राट तथा निर्वाचिक गण में पाई जाती है। संप्रभुता को राज्य की आत्मा कहा जाता है। संप्रभुता राज्य का वह आवश्यक तत्व है जो अन्य समुदायों या संगठनों से राज्य को पृथक करता है। संप्रभुता को सर्वोच्च संस्था बनाती है।

सम्प्रभुता कि विशेषताएँ –

  • पूर्णता,
  • अदेयता,
  • अविभाज्यता,
  • अनन्यता,
  • सुनिश्चितता,
  • निरपेक्ष,
  • व्यापक,
  • स्थायित्व,
  • सार्वभौमिकता

संप्रभुता को सीमित करने वाले कारक

संप्रभुता को सीमित करने वाले कारक –

  • बहुराष्ट्रीय निगम,
  • अंतः सरकारी संगठन,
  • गैर सरकारी संगठन,
  • अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ

एकलवादी संप्रभुता का सिद्धांत

सम्प्रभुता के अद्वैतवादी या एकल सिद्धांत का प्रतिपादक जॉन ऑस्टिन को माना जाता है। ऑस्टिन ने अपने संप्रभुता संबंधित सिद्धांत अपनी पुस्तक ‘लेक्चर्स ऑन ज्यूरिस्प्रू्डेंस’ (1832) में प्रस्तुत किए हैं। ऑस्टिन के अनुसार “प्रभुसत्ताधारी व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह, जिसकी आज्ञाओं को अधिकांश समाज स्वभाव से मानता है परंतु वह स्वयं इस ढंग से किसी की आज्ञा नहीं मानता, तो उस समाज में वह प्रभुसत्ताधारी प्रभुत्व (सर्वोच्च) शक्ति संपन्न होता है।”

अर्थात यह सिद्धांत निश्चित अधिकारी की प्रधानता को स्वीकार करता है। ऑस्टिन ने कानूनी सम्प्रभुता का सिद्धांत भी दिया है। उसके अनुसार कानून संप्रभु का आदेश है। ऑस्टिन का मानना है कि संप्रभुता का विभाजन नहीं किया जा सकता है। अर्थात तथ्यसम्मत और विधि सम्मत प्रभुसत्ता एक ही है।

ऑस्टिन की पुस्तकों के नाम –

  • ‘द प्रोर्विस ऑफ ज्यूरिस्प्रूडेंस डिटर्मिड’ (1882),
  • ‘लेक्चर्स ऑन ज्यूरिस्प्रू्डेंस’
  • ‘द फिलॉसफी ऑफ पॉजिटिव लॉ’ है।

ऑस्टिन के इस सिद्धांत से निम्न निष्कर्ष निकलते है-

  • राज्य का सकारात्मक कानून निश्चित कार्य करने की सामान्य आज्ञा है। कानून उच्चाधिकारी द्वारा अधीनस्थ को दिया गया आदेश है।
  • संप्रभुता का वैधानिक रूप से दो अथवा दो से अधिक लोगों में विभाजन नहीं किया जा सकता है। और कोई अमूर्त धारणा प्रभुसत्ताधारी नहीं हो सकती है।
  • समुदाय स्वतंत्र नहीं है। प्रभुसत्ताधारी सहित होने पर ही कोई समाज राजनीतिक एवं स्वतंत्र होता है।
  • ऑस्टिन के अनुसार किसी भी समाज के लिए राजनीतिक एवं स्वतंत्र होने के लिए संप्रभुता एक पूर्व शर्त है।
  • विधि समाज के औचित्य की धारणा को प्रतिबिम्बित करती है। (बेंथम और ऑस्टिन)

संप्रभुता के परम्परागत सिद्धांत के समर्थकों में ह्यूगो ग्रेशियस, बोदां, हॉब्स, रूसो एवं ऑस्टिन, हीगेल प्रमुख है।

बहुलवादी संप्रभुता का सिद्धांत

संप्रभुता का बहुलवादी सिद्धांत सर्वप्रथम वॉन गियर्क द्वारा प्रतिपादित किया गया। इसीलिए ओटेटो वा. गीयर्के को बहुलवाद का पिता कहा जाता है। गीयर्क की पुस्तक का नाम ‘पालिटिकल थ्योरीज ऑफ द मिडिल ऐज’ है। बहुलवाद ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धांत का विरोधी है। सम्प्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत का समर्थन लास्की, दुर्खीम, आर्थर फिशर बेंटले, ह्यूगो क्रैब, जे. एन. फिजिस, पाल. बान्कूर, जी. डी. एच. कोल, गीयर्के, मैटलैन्ड, मिस फॉलेट, बार्कर, ए. डी. लिंडसे, लियो डुग्वी और मैकाइवर हैं।

सम्प्रभुता के एकत्व (एकरवादी) सिद्धांत के विरोध के रूप में बहुलवाद को माना जाता है। परंपरागत संप्रभुता के विचार का बहुलवादी विरोध करते हैं क्योंकि उनके अनुसार दूसरे संगठन भी उतने ही महत्वपूर्ण है जितना की राज्य है। बहुलवादी समुदायों की स्वायत्तता की वकालत करते हैं। और राज्य को संघों का संघ मानते हैं। लास्की के शब्दों में राज्य समुदायों का समुदाय है। बहुलवादियों के अनुसार राज्य का मुख्य कार्य विभिन्न समूहों तथा समुदायों की गतिविधियों में सामंजस्य स्थापित करना है। राज्य जीवन की सर्व समाहारक योजना का समन्वय करने वाला होने के कारण सघों के मध्य सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है।

बहुलवादियों की मान्यताएं निम्न हैं-

  • बहुलवादी संप्रभुता सीमित, सापेक्ष और विभाज्य होती है।
  • बहुलवादी नाममात्र की संप्रभुता में विश्वास करते हैं।
  • राज्य को एक विधिक संस्था मानते हैं। जो राजनीतिक कार्यों की रचना करता है। और राज्य विधि (कानूनी) व्यक्ति है तथा अधिकारों की रक्षा के लिए अस्तित्व में आया है।
  • समूह उसी प्रकार वास्तविक है जैसे राज्य है।
  • मैं केवल उसी राज्य के प्रति वफादारी रखता हूँ जिसमें नैतिक परिपूर्णता पाता हूँ।
  • बहुलवाद के समर्थक यह मानते हैं कि संप्रभुता का विभाजन होना चाहिए क्योंकि यह शक्ति की उपज है। अर्थात ये राज्य की शक्ति में कटौती का पक्षधर हैं।

राजनीतिक संप्रभुता का सिद्धांत

डायसी के द्वारा सर्वप्रथम राजनीतिक संप्रभुता की अवधारणा प्रस्तुत की गई। जिसके तहत किसी भी राज्य में वह संस्था ही राजनीतिक रूप से संप्रभु कही जा सकती है जिसकी इच्छा का पालन सरकार व संवैधानिक संस्था द्वारा किया जाता है। ए. वी. डायसी के द्वारा कानूनी और राजनीतिक सम्प्रभुता के मध्य भेद किया गया है। डायसी के शब्दों में “विधिवेत्ता जिस प्रभुसत्ताधारी को मान्यता देते है, उनके पीछे एक दूसरा प्रभुसत्ताधारी रहता है। जिसके सामने कानून प्रभुसत्ताधारी को झुकना पड़ता है।” इन्होंने विधिक सम्प्रभुता और राजनीतिक संप्रभुता में अंतर बताया है।

जन सम्प्रभुता का सिद्धांत

जन सम्प्रभुता जनता को सर्वोच्च मानती है जिसका अन्य नाम लोकप्रिय (पॉपुलर) सम्प्रभुता है। रूसो का जन संप्रभुता का जनक माना जाता है। जन संप्रभुता के पक्षधर विद्वानों में जीन जैकब है। इस अवधारणा के अनुसार नागरिक संप्रभुता का स्वामी और सेवक दोनों होता हैं। रूसो के अनुसार जिसके (जनता) द्वारा सामाजिक अनुबंध माध्यम से राज्य की उत्पत्ति होती है। सर्वोच्च सत्ता उसी (जनता) में निहित होती है। अतः रूसो द्वारा प्रतिपादित सामान्य इच्छा के सिद्धांत में सम्प्रभुता का जो रूप प्रकट होता है उसे जन संप्रभुता (लोकप्रिय संप्रभुता) कहते है। इसमें जनता समस्त राजनीतिक और विधिक सत्ता का स्रोत होती है।

निरंकुश सम्प्रभुता का सिद्धांत

निरंकुश सम्प्रभुता का विचार हॉब्स का है वह उन समस्त संस्थाओं का विरोधी है जो संप्रभुता की शक्ति को सीमित करती हैं। हॉब्स का मानना है कि, संप्रभुता, निरपक्ष अविभाज्य, अपरिहार्य और सतत है। हॉब्स ने संप्रभुता को सर्वशक्तिमान सिद्धांत के रूप में विकसित किया। जॉर्ज सेबाइन ने लिखा है कि, हॉब्स का नाम सामान्यतः संप्रभु को निरंकुश शक्ति के जिस सिद्धांत के जोड़ा जाता है वह वस्तुतः उसके व्यक्तिवाद का आवश्यक संपूरक था।

बाह्य संप्रभुता का सिद्धांत

बाह्य संप्रभुता की अवधारणा को ग्रेशियस ने दिया। इसके अनुसार प्रभुसत्ता सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति है यह उस व्यक्ति में निहित होती है जिस पर किसी का नियंत्रण न हो और उसकी इच्छा का कोई उल्लंघन न करे।

परीक्षाओं में पूछे गये सम्प्रभुता से संबंधित विभिन्न विचारकों के मत

  • टी. एच. ग्रीन ने रूसो के सामान्य संकल्प (इच्छा) के सिद्धांत के साथ ऑस्टिन के निश्चित सर्वोच्च शक्ति (संप्रभु शक्ति) के सिद्धांत में सामंजस्य स्थापित किया। ग्रीन ने सामान्य इच्छा को संप्रभुता संपन्न तो माना लेकिन उसे राज्य की इच्छा के साथ जोड़ दिया।
  • लॉक ने ‘संप्रभुता’ शब्द का प्रयोग न कर ‘सर्वोच्च शक्ति’ का प्रयोग किया है।
  • व्यवहारवादी राजनीतिक सिद्धान्त में संप्रभुता का स्थान शक्ति, सत्ता और प्रभाव ने ले लिया है इसके समर्थक विद्वान रॉबर्ट ए. डाल, डेविड ईस्टन और हाइज युलो हैं।
  • प्रभुत्व की अवधारणा ग्राम्सी से संबंधित है। ग्राम्सी के द्वारा प्राधान्य सिद्धांत का प्रतिपादन किया है।
    संसदात्मक शासन में वैधानिक संप्रभुता संसद मे होती है।
  • आर्थर फिशर बेंटले की पुस्तक का नाम ‘द प्रोसेस ऑफ गवर्नमेंट’ (1908) है।
  • लियो दुग्वी के अनुसार “कानून सम्प्रभुता की आज्ञा नहीं वरन सामाजिक समरसता की शर्त है क्योंकि कानून को अस्तित्व में लाने का श्रेय राज्य को नहीं है। वह राज्य की उत्पत्ति के पूर्व भी विद्यमान था।”
  • मिस फॉलेट का बहुलवाद को भविष्यकालीन भविष्यवाणी माना है।
  • क्रैब का मत है कि, राज्य विधि का नहीं वरन विधि राज्य का निर्माण करती है।
  • जेम्स मेडिसन ने कहा है कि, “जहां शक्ति के विविध केंद्र होते है तथा जहां शक्ति व्यापार रीति से विपरित रहती है उसे एक बहुलवादी समाज कहा जाता है, जो निरंकुशता का रोकता है।”

संप्रभुता की अवधारणाएं एवं उनके प्रतिपादक

  • असीमित संप्रभुता – हॉब्स
  • सीमित (मर्यादित) संप्रभुता – जॉन लॉक
  • बहुलवादी संप्रभुता (बहुलवादी) – लास्की, ए. डी. लिन्डसे
  • एकल संप्रभुता (एकलवादी) – ऑस्टिन, हॉब्स
  • मार्क्सवादी – ग्राम्सी

परीक्षाओं में पूछे गये संप्रभुता से संबंधित महत्वपूर्ण कथन

  • बार्कर का कहना है कि , “आधुनिक राज्यों में स्थिति समूह बनाम राज्यों की होती जा रही है।” बार्कर ने व्यक्ति के स्थान पर समूदाय को राज्य की इकाई माना है।
  • स्वयं पर, स्वयं के शरीर और मस्तिष्क पर व्यक्ति सम्प्रभु है। यह कथन जॉन स्टुअर्ट मिल का है।
  • संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च इच्छा है। यह कथन विलोबी का है।
  • प्रभुसत्ता सर्वोच्च, अप्रतिशोधनीय, परम, अनियंत्रित शक्ति है जिसमें राज्य की उच्चतम वैधानिक शक्ति निवास करती है। यह कथन ब्लैकस्टोन का है।
  • प्रभुसत्ता व्यक्तिगत प्रजाजनों तथा प्रजाजनों के संघों के ऊपर मौलिक, परम एवं असीम शक्ति है। यह कथन बर्गेस का है।
  • वैधानिक सम्प्रभुता के पीछे एक राजनीतिक संप्रभु की खोज की कोशिश संप्रभुता की समूची धारणा को खत्म कर देती है और संप्रभुता को प्रभावों की सूची मात्र बना देती है। यह कथन गेटेल का है।
  • राजनीतिक संप्रभुता राज्य के उन प्रभावों का समूह है, जो कानून के पीछे रहती है। यह कथन गिलक्राइस्ट का है।
  • जैसे ही हम ऑस्टिन की रूखी. पर वैधानिक धारणा से दूर हो जाते हैं वैसे ही हम भ्रम में पड़ जाते हैं। यह कथन स्टीफन लीकॉक का है।
  • जितनी प्रभुसत्ताएँ होती है, उतने ही राज्य होते हैं। यह कथन मैकाइवर का है।
  • संप्रभुता एक अखण्ड वस्तु है, उसे विभाजित करना उसे विनष्ट कर देना है। यह कथन कैल्हन का है।
  • सम्प्रभुता देवीय और प्राकृतिक कानून का विषय है। यह विचार हीगल का है।
  • सामान्य इच्छा के प्रति असली आपत्ति यह है कि जहाँ तक यह इच्छा है यह सामान्य नहीं है तथा जहाँ तक यह समान है यह इच्छा नहीं है। यह कथन एल. टी. हाबहाउस का कथन है।
  • संप्रभु का आदेश ही कानून है। यह कथन ऑस्टिन का है।
  • कानून केवल आदेश ही नहीं एक अनुरोध भी है। यह कथन लास्की का है।
  • विधि निर्माण तथा उसे प्रभावकारी बनाने की दिन प्रतिदिन की क्रियात्मक शक्ति ही संप्रभुता है। यह कथन विल्सन का है।
  • जब संप्रभुता सही हाथों में विद्यमान होती है तो स्वतंत्रता बढ़ जाती है। यह कथन बर्लिन का है।
  • संप्रभु राज्य के दिन अब लद चुके हैं। यह कथन ए. डी. लिंडसे का है।
  • इंग्लैण्ड के चिंतकों में संप्रभुता को सरकार के एक अंग (संसद) में निहित करने की सामान्य प्रवृत्ति है।

परीक्षाओं में पूछे गये अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

  • चेतनाबोध जाति प्रथा का प्रमुख तत्व है।
  • व्यक्ति का वह अधिकार जो उसे सहज ही प्राप्त है जिससे उसे वंचित नहीं किया जा सकता और न ही उसे स्थानान्तरित किया जा सकता है प्राकृतिक अधिकार कहलाते हैं।
  • समुदायवाद विचारधारा प्रत्ययवाद (आदर्शवाद) की एक प्रमुख धारा है।
  • राजनीतिक बहुलवाद का जनक जर्मन समाजशास्त्री गीयर्क तथा मिटलैण्ड को माना जाता है राजनीतिक बहुलवाद के अनुसार समाज में शक्ति के विविध केन्द्र होते हैं।
  • भारत के संविधान में 86वें संशोधन के पश्चात 11 मौलिक कर्त्तव्य हैं।
  • भारत के मध्य प्रदेश व ओडिशा में अनुसूचित जनजातियों के लिए सर्वाधिक सीटें आरक्षित हैं।
  • नागरिकता के बहुलवादी सिद्धांत का सर्वोत्तम प्रतिपादक बी. एस. टर्नर है। बी. एस. टर्नर की बुक का नाम ‘हैंडबुक ऑफ सिटिजनसिप स्टडीज’ है।

नोट – आधिकार के सिद्धांतों के PYQ आधारित नोट्स पढ़ने के लिए – अधिकार के सिद्धांत

नोट – लोकतंत्र के सिद्धांतों के PYQ आधारित नोट्स पढ़ने के लिए – लोकतंत्र की परिभाषा, प्रकार और दलीय व्यवस्था

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!