स्वामी विवेकानन्द के राजनीतिक विचार के PYQ आधारित नोट्स बनाये गए हैं। जिसमें विवेकानन्द का परिचय, वेदांतिक विचारधारा का दर्शन, धर्म का विचार, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार, समाजवादी विचार, विवेकानन्द के अन्य महत्वपूर्ण विचार तथा स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकों एवं लेखों का विवरण है।
स्वामी विवेकानन्द का परिचय
स्वामी विवेकानन्द 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्मे थे। इनका वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त और घर का नाम विरेश्वर था। भारत सरकार ने 1984 में स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। स्वामी विवेकानन्द के गुरू का नाम रामकृष्ण परमहंस थे। जिनसे 1881 में विवेकानन्द की मुलाकात हुई। रामकृष्ण जी की मृत्यु 1886 में हो गई।
विवेकानन्द ने 1888 से 1893 के दौरान भारत भ्रमण किया। 1893 में विश्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिक के शिकागो शहर में गए और 1897 तक पश्चिमी देशों की यात्रा की। 1997 में भारत आकर 1 मई 1897 को कलकत्ता के बैलूर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। आगे चलकर 19 मार्च 1899 को मायावती नामक स्थान पर अद्वैत आश्रम की स्थापना भी की। पुनः 1899 से 1902 के दौरान पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा पर गये। इसी दौरान 22 फरवरी 1900 को सैन फ्रांसिस्को में वेदांत समिति की स्थापना की और 4 जुलाई 1902 में बैलूर-मठ में इनकी मृत्यु हो गई।
वेदांतिक विचारधारा का दर्शन
स्वामी जी के वेदांत दर्शन के तीन आधार स्तम्भ है।
- मानव की वास्तविक प्रकृति ईश्वरीय है।
- जीवन का लक्ष्य उस ईश्वरीय प्रकृति की अनुभूति करना।
- समस्त धर्मों का मूल लक्ष्य समान है।
विवेकानन्द नव-वेदांतिक विचारधारा के समर्थक थे, जिनका आधुनिक वेदांत व राजयोग प्रमुख दर्शन था। जिसे अद्वैत दर्शन भी कहते है, जिसके अनुसार, ब्रह्म एक ही है जो समूचे विश्व में विद्यमान है और समस्त विश्व में दिखने वाले भौतिक तत्व ब्रह्म के ही परिणाम है। विवेकानन्द के सामाजिक विचार वेदांतिक विचारधारा पर ही आधारित है। जिसमें मानवीय एकता का आध्यात्मिक आधार समाहित है। विवेकानन्द के विचार से भारत की समस्याओं का समाधान राष्ट्रवाद का सामाजिक आधार पर विस्तार करना छोड़कर निकाला नहीं जा सकता है।
धर्म का विचार
विवेकानन्द जी ने राजनीति को विभाजनकारी माना और धर्म को एकता स्थापित करने वाली शक्ति रूप में माना। अतः विवेकानन्द के विचारों का केंद्रीय तत्व धर्म है। इनके अनुसार भारत की उन्नति धर्म पर ही चल कर सम्भव है। विवेकानन्द का मानना था कि प्रत्येक देश के कार्य करने की अपनी शैली होती है, कुछ राजनीति के माध्यम से कार्य करते हैं, कुछ समाज सुधारों के द्वारा लेकिन हमारे पास इस भूमिका में धर्म है। उनके शब्दों में, जिस प्रकार सगीत में एक प्रमुख स्वर होता है वैसे ही हर राष्ट्र के जीवन में एक प्रधान तत्व होता है, अन्य सब तत्व उसी में केंद्रित होते हैं। भारत में वह तत्व धर्म है। विवेकानन्द ने पश्चिमी देशों के लोकतंत्र और दलीय व्यवस्था की कड़ी आलोचना की थी।
इन्होंने धर्म की उदार व्याख्या की और कहा धर्म का प्रयोग राजनीतिक उद्देश्यों कि लिए करना उचित नहीं है, क्योंकि धर्म राजनितिक शक्ति प्राप्त करने का साधन न है बल्कि वह स्वयं में साध्य है। जिसका वास्तविक उद्देश्य मानव कल्याण करना है। इसी कारण इन्होंने धार्मिक सहिष्णुता और धर्म के समन्वयवादी स्वरूप पर अधिक बल दिया। विवेकानन्द के अनुसार सच्चा धार्मिक दृष्टिकोण वह है जिसमें अपने धर्म की मूल मान्यताओं के प्रति निष्ठा रखकर भी दूसरे धर्मों के प्रति समान सम्मान का भाव रखा जाए।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार
स्वामी विवेकानन्द के राजनीतिक विचार के अंतर्गत भारत में राष्ट्रवाद का आधार रखा गया। इन्होंने भारत के सांस्कृतिक गौरव को पुनर्जीवित किया तथा भारत की सांस्कृतिक विरासत की श्रेष्ठता को उजागर किया। जिसका प्रयोग विवेकानन्द जी ने भारतीय जनता में आत्मविश्वास व राष्ट्रीयता की भावना विकसित करने के लिए किया। स्वामी जी ने धर्म को भारतीय राष्ट्रवाद का आधार बताया। इनके अनुसार धर्म ही वह नैतिक बल है जो व्यक्ति और राष्ट्र को शक्ति प्रदान करता है।
विवेकानन्द जी का मानना था कि राष्ट्रवाद के लिए अतीत से प्रेरणा ली जानी चाहिए और उज्जवल भविष्य के प्रति विश्वास होना चाहिए। जिसके लिए देश की जनता में भारतीय होने का गर्व, भाई चारा और देशभक्ति की भावना अवश्य होनी चाहिए। इसी कारण स्वामी जी ने राष्ट्रवाद में मानव के कल्याण की कामना पर अधिक बल दिया। विवेकानन्द के अनुसार, एक राष्ट्र की आत्मा की जाग्रति महानता की एक आवश्यक शर्त है। इन्होंने राष्ट्रीयता के लिए तीन आवश्यक तत्वों का उल्लेख किया है-
- सौजन्य की शक्ति में दृढ़ विश्वास
- ईष्या और संदेह का अभाव
- अच्छे कार्यों में सहायता करने की आवश्यकता
विवेकानन्द के समाजवादी विचार
स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक ‘मैं समाजवादी हूँ’ में अपने समाजवादी विचार प्रस्तुत किये हैं। जिस पर समादवादी विचारक कॉपरनिकस के विचारों का प्रभाव दिखाई देता है। विवेकानन्द ने कहा था की “मैं इसलिए समाजवादी नहीं हूँ कि वह पूर्ण व्यवस्था है बल्कि इसलिए कि आधी रोटी कुछ नहीं से अच्छा है।”
विवेकानन्द ने दीन-दुखियों की सेवा को भी धर्म माना है। इसीलिए इन्होंने मानवीय कार्यों का अंतिम लक्ष्य और परिणाम सामूहिक माना है न कि सिर्फ व्यक्तिगत सुख। विवेकानन्द ने अपने विचारों में व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा का ध्यान रखते हुए भी समुदाय के हितों के लिए कार्य करने की आकांक्षा जताई। यही कारण है कि इन्होंने मानव मात्र की समानता पर बल दिया तथा दलितों व पीड़ितों की सेवा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी और इनके उत्थान की आवश्यकता पर बल दिया।
विवेकानन्द के अन्य विचार
- स्वामी विवेकानन्द के राजनीतिक विचार के अंतर्गत इन्होंने सामाजिक व्यवस्था में उच्च वर्णों के वर्चस्व का विरोध किया, अवसर की समानता पर बल दिया।
- विवेकानन्द का कथन है कि अंतः स्वतंत्रता के प्रति अधिक अनुक्रियाशील बनाने के पूर्व मन का सर्वप्रथम वि-उपनिवेशीकरण करना होगा।
- श्रेष्ठ समाज की स्थापना के लिए नारी-स्वतंत्रता और नारी के योगदान को महत्वपूर्ण व आवश्यक माना।
- विवेकानन्द गुरूकुल शिक्षा पद्धति का प्रबल समर्थन किया। इनका मानना था कि व्यक्ति का नैतिक विकास, आंतरिक क्षमताओं के विकास के हेतु शिक्षा अतिआवश्यक है।
- विवेकानन्द ने आर्य सिद्धांत का खंडन किया। इन्होंने आर्यों के द्वारा भारत पर आक्रमण किये जाने को अस्वीकार किया किन्तु आर्य एवं द्रविड़ों के बीच प्रजातीय भेद को स्वीकार किया।
- विवेकानन्द के अनुसार, भौतिक समृद्धि के बिना आध्यात्मिक विकास संभव नहीं, क्योंकि भौतिक और वैज्ञानिक विकास सभ्यता का प्रथम सोपान है और और आध्यात्मिक विकास सभ्यता का उच्चतम चरण है।
स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकें
- कर्म योग 1896
- राज योग 1896
- सिक्स लेसन्स ऑन राजयोग 1896
- लैक्चर्स फ्राम कोलम्बो टू अलमोड़ा 1897
- काली द मदर 1898
- ज्ञान योग 1899
- वर्तमान भारत 1899
- माइ मास्टर 1901
- इन्सपायर टॉक्स 1909
- द ईस्ट एंड द वेस्ट 1909
- द पॉवर ऑफ द माइंड, प्रक्टिस वेदांत 1912
- कम्पलीट वर्क 1922
- कास्ट, कल्चर एंड सोशलिज्म 1947
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